सोमवार, दिसंबर 27, 2010

नये साल के दो रंग


                          
                                 पहला रंग 


चलो कुछ दिन बाद  एक नया साल फिर आने वाला है |
 और अपने साथ खुशियाँ ही खुशियाँ लाने वाला है |
नये साल में तो  बास की सीट भी खाली हो जाएगी |
सीनियर तो मैं ही हूँ,बस मुझको ही  मिल जाएगी |
 तंगी से जूझते गुप्ता जी की पैसे की  समस्या हल हो जाएगी|
क्योंकि अलमारी में पड़ी एन एस सी भी मैच्योर हो जाएगी |
अगले साल बेटे की पोस्टिंग भी अपने शहर में हो जाएगी |
और बेटी की शादी भी से किसी अफसर से हो जायगी |
गैराज में खड़ी होंडा सिटी अब आउट डेटऐड   हो जाएगी | 
अगले साल तो पाण्डेय जी की  नई बी ऍम डब्लू  आयगी |
  
                  दूसरा रंग 

 चलो कुछ दिनों बाद एक नया साल फिर आएगा 
 और अपने साथ साथ फिर वही समस्याएँ लायेगा |
एक बार फिर पत्नी बच्ची की नई फ्राक के लिए चिल्लाएगी 
क्योंकि छुटकी की छलनी हुई फ्राक कुछ और छोटी हो जाएगी |
 बड़की की बढती हुई उम्र अब  एक साल और बढ जाएगी |
शादी का इंतजार करते करते अब तो वह बूढी कहलाएगी |
बेरोजगार बेटे की टूटी हुई चप्पल फिर उसका मुंह चिडाएगी |
अगले साल तो उसकी नौकरी की उम्र ही निकल जाएगी |
अगले साल तो  महंगाई कुछ और ज्यादा ही बढ़ जाएगी 
दूध की ख़ाली बोतल मेरी बच्ची का मुंह फिर चिडाएगी |
एक रूपए की टॉफी खरीदना एक बड़ी बात बन जाएगी |
 मेरी बेटी नंगे फर्श  पर अंगूठा चूसते चूसते  ही सो जाएगी |



यह मेरी २०१० की अंतिम पोस्ट है| क्योंकि नया साल मेरे लिए बहुत  अच्छा 
होगा इस बात का भ्रम पाले हुए यह भ्रमित आदमी भ्रमण पर जा रहा है|
इस भ्रमण काल  में मै २९-१२-२-१० को कानपुर,३०-१२ -२०१० से ०१-०१२०११ 
लखनऊ ,०२-०१ -२०११  काठगोदाम ,पन्तनगर (उधमसिंह नगर ),०५-०१ -२०११ 
से  ०९-०१-२०११ दिल्ली में रह कर, लौट कर बुद्धू घर को आये की  कहावत  को चरितार्थ 
करते  हुए १०-०१ -२०११ को हैदराबाद आऊंगा|



   आप  सभी को नव वर्ष मंगलमय हो 



शुक्रवार, दिसंबर 24, 2010

सृजन का कारण



मेरे एक मित्र का मानना ही की कवि या कोई रचनाकार एक दुखी प्राणी 
होता है | मैंने उनसे कहा अगर आपका यह तथ्य सत्य है तो भारत में 
१२० करोड़ कवि होने चाहिए | और उस फेहरिस्त में अम्बानी ,टाटा का 
बिरला जैसे लोगों का नाम भी होना चाहिए क्योंकि वह भी तो दुखी है |


जहाँ तक मेरा प्रश्न है इस रचना के माध्यम से देखिये |




शब्दों का खेल नहीं दर्द है यह दिल का ,
कण कण रोता है जब मेरे अंतर्मन का |
जो आँखों से छलकता , उसे पानी मत  मानिये |
तब   एक फूटता है  छाला मेरे दिल का |


खुली आँखें सपना संजोना कैसे छोड़ दे |
दूसरे के दर्द पे हम रोना कैसे छोड़  दे| 
कलम दवात दी, जब  पूर्वजों ने हाथ में ,
तब पुस्तिका के पन्नों को कोरा कैसे छोड़ दे | 

रविवार, दिसंबर 19, 2010

एक सलाह !



अपनी मुफ़लिसी को मत ,
अपनी तक़दीर का लिखा मानो |
 ए दोस्त ,इसमें कुछ तो
अपनी तदबीर का हिस्सा मानो  |


जब कोई दौलत के नशे में ,
अपने कद की नुमाइश करता हो |
बस उसी वक्त उसे ,
रेत के ढेर पर खड़ा जानो |

सोमवार, दिसंबर 13, 2010

शहीदों को सलाम !



लीजिये आज एक मौका फिर मिल गया हमारे महान नेताओं को 
शहीदों के नाम पर ...............(शब्द अपने आप लगा लीजिये) आँसू 
बहाने का | आज संसद पर हमले की नौवी बरसी है जिसमें देश के नौ
जवान शहीद हुए थे वैसे इन नेताओं की सोच और मानसिकता एक आम आदमी 
की समझ से परे ही लगती है| आखिर यह चाहते क्या है ? 
कभी यह बुलेटप्रूफ जाकिट का मुद्दा उठाते है कभी यह किसी की शहादत 
को सवालों के घेरे में खड़ा कर देते है , कारगिल युद्ध के समय ताबूत में 
कमीशन का मुद्दा खैर छोडिये कहाँ तक गिनाये .................
मग़र शहीदों  श्रद्धांजली  देने में पीछे नहीं रहते है |एक रचना के माध्यम से देखिये |

         ताबूत कांड 


शहीदों की चिताओं पर मेले हम लगाते है |
और उनकी वीरता के गीत भी सुनाते है 
ऐसी श्रद्धांजली मैंने कहीं देखी नहीं ,
जिसमें ताबूतों की भी पैसे खाये जाते है |


      एक प्रार्थना 


 आज मेरे इन शहीदों पर , 
एक अहसान आप कीजिये |
यदि मान नहीं दे सकते 
तो अपमान मत कीजिये |


       चेतावनी 


यदि शहीदों के बच्चे भूखे प्यासे सोते है 
बूढी माँ के आँचल को  आँसू ही भिगोते है
शहीदों की विधवाए  यदि दर दर भटकेंगी |
तो फिर देश की सीमाये भी सैनिकों को तरसेंगी |
   

गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

इसे मै क्या कहूँ ?



हम रास्ते में जिन्हें
पत्थर समझ कर छोड़ आये थे |
वह आज  मंदिरों में
भगवान बने बैठे है |


 अब कोई मेरे दुश्मन की
 आज तक़दीर तो देखे ,
वह मेरे घर का मालिक
और हम उसके दरवान बने बैठे |


बचपन में करबट बदलने पर
जो खोल देती थी आँखें अपनी ,
आज उसके कराहने पर भी
हम अपनी आँखें मूंदें बैठे |


और बचपन में जो हमारी
तोतली जुबान की सारी बाते जान लेती थी |
आज एक हम है जो उसकी 
 पोपली जुबान से  अनजान बने बैठे |





शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

इनसे कुछ ना कहना

    अपनी बात आरम्भ करने से पहले मै यह बताना चाहता हूँ कि
रचनाकार कि कलम ना ही राजनीति के बृक्ष कि साख से बनती
है और ना ही इसमें किसी पार्टी कि स्याही का प्रयोग होता है |
पिछले  कुछ दिंनों से संसद में अवरोध बना हुआ है |  कारण है कुछ
घोटाले जो कि हमारे लिए एक आम बात बन चुके है  अब प्रश्न यह उठता 
जिस प्रकार सरकारी कर्मचारी के काम ना करने पर उसका वेतन" नो वर्क
नो पे" के आधार पर काट लिया जाता है| 
क्या इनके साथ भी यही होता है ?
क्या इनको सरकारी कार्यों में व्यवधान पहुँचाने का संविधानिक अधिकार है 
कुछ साल पहले तिरंगा यात्रा और दागी मंत्री का मुद्दा भी छाया  रहा था |
समय व्यर्थ मत कीजिये एक मंचीय रचना के माध्यम से इनका हाल देखिये

रोज रोज नये नये कुछ मुद्दे ढूंढ़  लाते है| 
भूख और गरीबी का यह मुद्दा भूल जाते है |
सिर अपना शर्म से कुछ और झुक जाता है 
जब देश का तिरंगा एक मुद्दा बन  जाता है 
|
                 दागी मंत्री 

दागी दागी , दागी कुछ दागी चिल्लाते है ,
शांत शांत , शांत कुछ शोर मचाते है |
दूसरों के दागों कि कहानी वह  सुनाते है, 
पर अपने दागों को जो देख नहीं पाते है|
दाग कैसे देखेंगे जब आँखें मूंद रखी है ,
और आइना भी ऐसा जिसमें कालिख पोत रखी है|