क्यों सहती हो ?
कल कल बहती नदी यहाँ पर
मंद पवन भी कुछ कहती है |
फिर साँसों के रथ पर सवार हो कर,
तुम गुमशुम सी क्यों रहती हो |
थोड़ा सा ग़म बाँट लो तू भी
तुम इतना ग़म क्यों सहती हो |
तुमने उसको अपना माना,
पर उसने, उसको अपना जाना
जिसने तुमको कुछ न माना,
क्यों उसको अपना कहती हो |
थोड़ा सा ग़म बाँट लो तुम भी
तुम इतना ग़म क्यों सहती हो |
नहीं प्रेम अब एक तपस्या ,
अब तो यह व्यापार बना है |
और न तुम मीरा न वह कृष्ण ,
फिर विष का प्याला क्यों पीती हो |
थोड़ा सा ग़म बाँट लो तुम भी
तुम इतना ग़म क्यों सहती हो |
जिस जीवन में बरसे प्रेम सुधा ,
तब एक प्रेम वाटिका बन जाती है |
क्यों नागफनी के जंगल में
अब खुशबू को ढूंढा करती हो |
थोड़ा सा ग़म बाँट लो तुम भी
तुम इतना ग़म क्यों सहती हो |