ना जाने मै अपनी ज़िंदगी के किस मोड़ पर मै आया हूँ जो मुझे छोड़ ही नहीं सकती मै उस माँ को छोड़ आया हूँ | याद है मुझको, पड़ रही थी धूप जब, ग़मों की मुझ पर बस उसके आँचल की छाँव थी मुझ पे मै आज यह भी भूल आया हूँ | वह जो फर्ज की शक्ल में अहसान हम सब पर करती है इसको खुदगर्जी कहूँ या मज़बूरी ? उनको कुछ सिक्कों से तोल आया हूँ | बहते हुए आँसुओं से उसके , भींगते हुए आँचल का ख्याल था मुझको बस इसलिए लौट कर आने का झूठा दिलासा दे कर आया हूँ |
ना जाने किस तरह के लव्ज मेरी जुवां से फ़िसल गए | जो सदियों से दिल में रहते थे वह पल में निकल गए | हालाँकि कि मुझको उनसे कोई शिकवा गिला नहीं | मग़र परेशां ज़रुर हूँ , क्या दोस्ती के मायने बदल गए |