सोमवार, दिसंबर 27, 2010

नये साल के दो रंग


                          
                                 पहला रंग 


चलो कुछ दिन बाद  एक नया साल फिर आने वाला है |
 और अपने साथ खुशियाँ ही खुशियाँ लाने वाला है |
नये साल में तो  बास की सीट भी खाली हो जाएगी |
सीनियर तो मैं ही हूँ,बस मुझको ही  मिल जाएगी |
 तंगी से जूझते गुप्ता जी की पैसे की  समस्या हल हो जाएगी|
क्योंकि अलमारी में पड़ी एन एस सी भी मैच्योर हो जाएगी |
अगले साल बेटे की पोस्टिंग भी अपने शहर में हो जाएगी |
और बेटी की शादी भी से किसी अफसर से हो जायगी |
गैराज में खड़ी होंडा सिटी अब आउट डेटऐड   हो जाएगी | 
अगले साल तो पाण्डेय जी की  नई बी ऍम डब्लू  आयगी |
  
                  दूसरा रंग 

 चलो कुछ दिनों बाद एक नया साल फिर आएगा 
 और अपने साथ साथ फिर वही समस्याएँ लायेगा |
एक बार फिर पत्नी बच्ची की नई फ्राक के लिए चिल्लाएगी 
क्योंकि छुटकी की छलनी हुई फ्राक कुछ और छोटी हो जाएगी |
 बड़की की बढती हुई उम्र अब  एक साल और बढ जाएगी |
शादी का इंतजार करते करते अब तो वह बूढी कहलाएगी |
बेरोजगार बेटे की टूटी हुई चप्पल फिर उसका मुंह चिडाएगी |
अगले साल तो उसकी नौकरी की उम्र ही निकल जाएगी |
अगले साल तो  महंगाई कुछ और ज्यादा ही बढ़ जाएगी 
दूध की ख़ाली बोतल मेरी बच्ची का मुंह फिर चिडाएगी |
एक रूपए की टॉफी खरीदना एक बड़ी बात बन जाएगी |
 मेरी बेटी नंगे फर्श  पर अंगूठा चूसते चूसते  ही सो जाएगी |



यह मेरी २०१० की अंतिम पोस्ट है| क्योंकि नया साल मेरे लिए बहुत  अच्छा 
होगा इस बात का भ्रम पाले हुए यह भ्रमित आदमी भ्रमण पर जा रहा है|
इस भ्रमण काल  में मै २९-१२-२-१० को कानपुर,३०-१२ -२०१० से ०१-०१२०११ 
लखनऊ ,०२-०१ -२०११  काठगोदाम ,पन्तनगर (उधमसिंह नगर ),०५-०१ -२०११ 
से  ०९-०१-२०११ दिल्ली में रह कर, लौट कर बुद्धू घर को आये की  कहावत  को चरितार्थ 
करते  हुए १०-०१ -२०११ को हैदराबाद आऊंगा|



   आप  सभी को नव वर्ष मंगलमय हो 



शुक्रवार, दिसंबर 24, 2010

सृजन का कारण



मेरे एक मित्र का मानना ही की कवि या कोई रचनाकार एक दुखी प्राणी 
होता है | मैंने उनसे कहा अगर आपका यह तथ्य सत्य है तो भारत में 
१२० करोड़ कवि होने चाहिए | और उस फेहरिस्त में अम्बानी ,टाटा का 
बिरला जैसे लोगों का नाम भी होना चाहिए क्योंकि वह भी तो दुखी है |


जहाँ तक मेरा प्रश्न है इस रचना के माध्यम से देखिये |




शब्दों का खेल नहीं दर्द है यह दिल का ,
कण कण रोता है जब मेरे अंतर्मन का |
जो आँखों से छलकता , उसे पानी मत  मानिये |
तब   एक फूटता है  छाला मेरे दिल का |


खुली आँखें सपना संजोना कैसे छोड़ दे |
दूसरे के दर्द पे हम रोना कैसे छोड़  दे| 
कलम दवात दी, जब  पूर्वजों ने हाथ में ,
तब पुस्तिका के पन्नों को कोरा कैसे छोड़ दे | 

रविवार, दिसंबर 19, 2010

एक सलाह !



अपनी मुफ़लिसी को मत ,
अपनी तक़दीर का लिखा मानो |
 ए दोस्त ,इसमें कुछ तो
अपनी तदबीर का हिस्सा मानो  |


जब कोई दौलत के नशे में ,
अपने कद की नुमाइश करता हो |
बस उसी वक्त उसे ,
रेत के ढेर पर खड़ा जानो |

सोमवार, दिसंबर 13, 2010

शहीदों को सलाम !



लीजिये आज एक मौका फिर मिल गया हमारे महान नेताओं को 
शहीदों के नाम पर ...............(शब्द अपने आप लगा लीजिये) आँसू 
बहाने का | आज संसद पर हमले की नौवी बरसी है जिसमें देश के नौ
जवान शहीद हुए थे वैसे इन नेताओं की सोच और मानसिकता एक आम आदमी 
की समझ से परे ही लगती है| आखिर यह चाहते क्या है ? 
कभी यह बुलेटप्रूफ जाकिट का मुद्दा उठाते है कभी यह किसी की शहादत 
को सवालों के घेरे में खड़ा कर देते है , कारगिल युद्ध के समय ताबूत में 
कमीशन का मुद्दा खैर छोडिये कहाँ तक गिनाये .................
मग़र शहीदों  श्रद्धांजली  देने में पीछे नहीं रहते है |एक रचना के माध्यम से देखिये |

         ताबूत कांड 


शहीदों की चिताओं पर मेले हम लगाते है |
और उनकी वीरता के गीत भी सुनाते है 
ऐसी श्रद्धांजली मैंने कहीं देखी नहीं ,
जिसमें ताबूतों की भी पैसे खाये जाते है |


      एक प्रार्थना 


 आज मेरे इन शहीदों पर , 
एक अहसान आप कीजिये |
यदि मान नहीं दे सकते 
तो अपमान मत कीजिये |


       चेतावनी 


यदि शहीदों के बच्चे भूखे प्यासे सोते है 
बूढी माँ के आँचल को  आँसू ही भिगोते है
शहीदों की विधवाए  यदि दर दर भटकेंगी |
तो फिर देश की सीमाये भी सैनिकों को तरसेंगी |
   

गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

इसे मै क्या कहूँ ?



हम रास्ते में जिन्हें
पत्थर समझ कर छोड़ आये थे |
वह आज  मंदिरों में
भगवान बने बैठे है |


 अब कोई मेरे दुश्मन की
 आज तक़दीर तो देखे ,
वह मेरे घर का मालिक
और हम उसके दरवान बने बैठे |


बचपन में करबट बदलने पर
जो खोल देती थी आँखें अपनी ,
आज उसके कराहने पर भी
हम अपनी आँखें मूंदें बैठे |


और बचपन में जो हमारी
तोतली जुबान की सारी बाते जान लेती थी |
आज एक हम है जो उसकी 
 पोपली जुबान से  अनजान बने बैठे |





शुक्रवार, दिसंबर 03, 2010

इनसे कुछ ना कहना

    अपनी बात आरम्भ करने से पहले मै यह बताना चाहता हूँ कि
रचनाकार कि कलम ना ही राजनीति के बृक्ष कि साख से बनती
है और ना ही इसमें किसी पार्टी कि स्याही का प्रयोग होता है |
पिछले  कुछ दिंनों से संसद में अवरोध बना हुआ है |  कारण है कुछ
घोटाले जो कि हमारे लिए एक आम बात बन चुके है  अब प्रश्न यह उठता 
जिस प्रकार सरकारी कर्मचारी के काम ना करने पर उसका वेतन" नो वर्क
नो पे" के आधार पर काट लिया जाता है| 
क्या इनके साथ भी यही होता है ?
क्या इनको सरकारी कार्यों में व्यवधान पहुँचाने का संविधानिक अधिकार है 
कुछ साल पहले तिरंगा यात्रा और दागी मंत्री का मुद्दा भी छाया  रहा था |
समय व्यर्थ मत कीजिये एक मंचीय रचना के माध्यम से इनका हाल देखिये

रोज रोज नये नये कुछ मुद्दे ढूंढ़  लाते है| 
भूख और गरीबी का यह मुद्दा भूल जाते है |
सिर अपना शर्म से कुछ और झुक जाता है 
जब देश का तिरंगा एक मुद्दा बन  जाता है 
|
                 दागी मंत्री 

दागी दागी , दागी कुछ दागी चिल्लाते है ,
शांत शांत , शांत कुछ शोर मचाते है |
दूसरों के दागों कि कहानी वह  सुनाते है, 
पर अपने दागों को जो देख नहीं पाते है|
दाग कैसे देखेंगे जब आँखें मूंद रखी है ,
और आइना भी ऐसा जिसमें कालिख पोत रखी है| 



शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

शहीद का घर

आज सारा भारतवर्ष २६/११ के शहीदों को अपने अपने अंदाज
में श्रद्धांजलि  दे रहा है | कुछ साईकिल चला कर , कुछ मोमबत्ती
जला कर ओर कुछ शांति मार्च निकाल कर | अब प्रश्न  उठता है
इनमें से कितने लोग इन्हें कल याद रखेंगे इसका उत्तर  मै आप पर
छोड़ता हूँ |क्या आपने कभी यह सोचा  जिस परिवार का कोई
व्यक्ति शहीद  होता है उस घर का क्या हाल होता है |
मै इस रचना के माध्यम से आपको एक शहीद के घर में लेके चलता हूँ |


बेटे के जब मौत का संदेशा घर में आया था |
तब बूढी माँ के आँखों में तो सागर उतर आया था |

कंधे पर खिलाया था जिसने अपने लाल को ,
अर्थी का तो  वोझ भी उसी कंधें ने उठाया था |

अभी सुहाग कि सेज के तो फूल मुरझाये नहीं ,
 और चूड़ियों  के टूटने का समय वहाँ आया था | 

भाई ओर बहन के करुण क्रंदन को देख कर ,
अपने किये पे  तो काल भी पछताया था |


शनिवार, नवंबर 20, 2010

व्यंग्य :आवश्यकता है एक समीक्षक की

       
 आवश्यकता है एक समीक्षक की जो मेरी बिना सिर पैर की, बेतुकी और कवित्व दोष से
भरपूर रचनाओं की समीक्षा कर उन्हें साहित्य जगत की अनुपम कृति बता सके |
पारिश्रमिक साहित्य जगत में बने स्थान की स्थिति  पर निर्भर करेगा |
यह विज्ञापन देने का कारण यह है कि मेरे एक कवि मित्र के अनुसार अच्छा लेखक बनने
के लिए सर्वप्रथम अच्छा पाठक ,साहित्यिक ज्ञान , साहित्यिक रूचि और सृजन  क्षमता
होना आवश्यक है |यदि आपके पास इनमें से कुछ भी नहीं है तो एक ख्याति प्राप्त समीक्षक
अवश्य होना चाहिए|  क्योंकि रचनाओं का स्तर, पाठकों कि पसंद नापसंद पर निर्भर नहीं
रहता वह तो  समीक्षक के द्वारा नियत किया जाता है
उदाहरण के रूप में एक कविता कि कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है |
            नीले आकाश
            की  ओर देखकर
            कुत्ते ने अपने
            पंजों में दबी
           हड्डी को
           पुन : चूसना शुरू कर दिया |
अब इन पंक्तियों कि समीक्षा देखिये प्रस्तुत पंक्तियों में कवि सूखे के कारण पड़े अकाल कि
  भयानक स्थिति का वर्णन करता है यहाँ नीला आकाश सूखे को दर्शाता है  तथा हड्डी मानव अबषेशों को ऐसा प्रतीत होता है कि धरती मानव विहीन हो चकी है,
 ओर बचा हुआ एकमात्र जीव अपने अस्तित्व को बचा कर रखने का प्रयास कर रहा है
कविता कि इन पंक्तियों से पाठक के मस्तिष्क  में साकार चित्र खिंच जाता है 
 बहुत सुंदर  भावाव्यक्ति 

सोमवार, नवंबर 15, 2010

मंहगाई और आम आदमी



बढती हुई महँगाई की चिंता
अब हमें भी होने लगी है |
क्योंकि हमारी फटी मैली क़मीज में ,
लगे बदरंग बटनों का स्थान , 
आलपिन लेने  लगी है |
यह महँगाई यूँ ही बढती जाएगी  
और एक दिन आसमान को छू जाएगी  |
तब ज़मीन और आसमान के बीच का फ़ासला ,
कुछ भी  नहीं रह जायेगा |
आदमी ज़िंदगी के बोझ से मर जायेगा |

(यह रचना पुनः  सम्पादित एवम प्रकाशित है) 

मंगलवार, नवंबर 09, 2010

यूँही नही हम ऐसे



माना कि ज़िंदगी की दौड़ में 
हम सबसे  पीछे रह गए |
बदल लेते अगर, रास्ता अपना 
तो हम भी बहुत दूर निकल जाते |

ऐ दोस्त  रौशनी की ज़रूरत 
अगर होती नहीं हमको |
तो ऐ  आफ़ताब कुछ लोग तो ,
तुझको भी ज़िन्दा निगल जाते | 

बुधवार, नवंबर 03, 2010

यह कैसी दीवाली







                जितने भी तुम दीप जलालो
               मैं नहीं कहूँगा इसे दीवाली |
जब रावण नित सीता को हरता
राम खोज में वन वन फिरता
सुग्रीव ना जाने  कहाँ खो गया,
अब तो बस मिलते बाली |
                        जितने भी तुम दीप जलालो
                        मैं नहीं कहूँगा इसे दीवाली |
आज छाया है घनघोर अँधेरा 
और  तेज चल रही नफ़रत की आँधी
क्या मै आस करूं उस दीपक से 
जिसकी गोद पड़ी हो खाली
                 जितने भी तुम दीप जलालो |
                  मैं नहीं कहूँगा इसे दीवाली 
हाँ जब कोई आँसू ना छलके 
और खुशियाँ चेहरे पर झलके |
जब सबको अपना हक़ मिल जाये 
और कोई पेट ना हो खाली |
                   तब तुम बस एक दीप जलाना 
                    तब  उसे कहूँगा मैं दीवाली |



 चित्र गूगल के सौजन्य से 

सोमवार, नवंबर 01, 2010

हास्य कवितायेँ ,दीवाली की फुलझड़ी



जलते हुए मकान से
जिन  लोगों ने दस आदमियों को निकाला
वह तो बस दो हिम्मत वाले  थे 
मग़र दोनों को जेल हो गयी .
क्योंकि मकान के अन्दर तो फायर ब्रिगेड वाले थे |


              




एक मिठाई की दुकान पर लिखा था |
शुद्ध देशी घी से बनी मिठाई की दुकान 
और नकली सिद्ध करने वाले को 
एक हज़ार रुपये नकद इनाम |
बोर्ड के नीचे लिखा था ,
हम अपना वादा बहुत ईमानदारी से निभाते है |
और यह इनाम एक साल में दो बार दे जाते है |
                     





 एक  छोटी चाय की दुकान पर लिखा  था |
होटल ओवेराय  शेरेटन यही है 
और नीचे लिखा था 
हमारी दूसरी कोई ब्राँच नहीं है |

बुधवार, अक्तूबर 27, 2010

यथार्थ


झाँक कर देखा खिड़की से
उमड़ते हुए बादलों को
दौड़ कर आँगन में आया | 
और आकाश में बादलों का एक झुंड पाया | 
और शुरू हो गया तलाश का
एक अंतहीन सिलसिला
अचानक खिल उठा चेहरा |
और प्रसन्न हुआ अंतर्मन
क्योंकि मिल गयी थी मुझे ,
मुन्नी की गुड़िया और पत्नी का कंगन
फिर अचानक कुछ सोंच कर डर गया
यथार्थ के धरातल पर गिर गया |
दौड़ कर अन्दर आया
बंद कर ली खिड़की और दरवाजे
कहीं भिगो न दे यह
मेरे तन का एकमात्र कपड़ा |

 (एक पुरानी रचना पुनः  प्रकाशित)  


बुधवार, अक्तूबर 20, 2010

मुझे अच्छा नहीं लगता



खड़ी हो अगर  दीवार  आँगन में
बस किसी तरह मै बर्दाश्त  करता हूँ |
मग़र दिलों के बीच दीवार  का होना ,
ना जाने क्यों, मुझे  अच्छा नहीं लगता  |


लबों पे सजी रहें हमेशा मुस्कराहटें ,
यह दुआ मैंने ख़ुदा से माँगी है |
मग़र किसी की बदहाल हालत पर ,
उसका  मुस्कराना, मुझे अच्छा नहीं लगता |


हर पुरानी बात को भूल जाना चाहिए  
 यह है सबको मशविरा मेरा ,
मग़र किसी के अहसानों को ,
भूल  जाना, मुझे अच्छा नहीं लगता |


 हर शेर में अल्फ़ाज की बंदिश भी हो |
और ख्याल की नजाकत भी 
फिर भी गज़ल  का नाकामयाब ,
हो जाना, मुझे अच्छा नहीं लगता |




|



शुक्रवार, अक्तूबर 15, 2010

शोहरत की धूल


जैसे जैसे हमारी पहचान 
 समाज में बढने लगती है |
वैसे वैसे हमारी रिश्तों की,
चादर सिमटने लगती है |
प्रेम और आत्मीयता के फूलों के रंग  ,
अब धुंधले पड़ने लगे है |
क्योंकि उसमें गरीबी और बदहाली के, 
निशान उभरने लगे है |
आज हमें अपनों की शक्लें की
अनजानी लगने लगी है |
क्योंकि आँखों पे चढ़े चश्में पर 
शोहरत की धूल जमने लगी है |

शुक्रवार, अक्तूबर 08, 2010

एक हास्य कविता , शिव का धनुष


 इंस्पेक्टर आफ स्कूल ने पूछा,
बच्चों यदि तुम्हें अपनी संस्कृति का ज्ञान है
तब यह प्रश्न बहुत ही आसान है |
सीधा सा प्रश्न है  ना तोड़ा ना मरोड़ा है
यह बताओ शिव का धनुष  किसने तोड़ा है
सामने बैठे बच्चे ने उत्तर दिया
अपने यह आरोप लगाकर मुझे कहीं का नहीं छोड़ा है
सत्य तो यह है शिव का धनुष मैंने नहीं तोड़ा है |
तभी पास खड़ा हिन्दी का अध्यापक सामने आता है |
और वह भी उसको निर्दोष बताता है |
मानता हूँ की यह बच्चा बहुत शैतान है ,
मग़र धनुष का तोड़ना इसका नहीं काम है |
उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया
इंस्पेक्टर सीधा प्रिंसिपल के रूम में घुस गया |
प्रिंसिपल ने प्यार से बिठाया और समझाया
खेल में तो बड़े बड़े रिकार्ड टूट जाते है ,
एक आप है जो एक धनुष के टूटने पे चिल्लाते है |
इसका उत्तर हम आपको अभी बताते है ,
अपने क्रीडा अध्यापक को अभी बुलाते है |
तभी एक व्यक्ति अंदर आता है |
अपनी उखड़ी हुई साँसों को लाइन से लगाता ,
और अपने को पी टी आइ बताता है |
उसका उत्तर था श्रीमान जी धनुष विद्या तो हमारे कोर्स में भी नहीं था |
और दावे से कहता हूँ की एक भी धनुष हमारे स्टोर्स में भी नही था |
इंस्पेक्टर सीधा शिक्षा मंत्री के पास गया
अपनी समस्या से अवगत कराया |
मंत्री जी बोले आप यह बात किसी को नहीं बताएँगे|
नहीं तो विरोधी दल  ,चुनाव में इसको मुद्दा बनायेंगे |
हाँ अब अपनी संस्कृति का अपमान
अब और नहीं सह पाएंगे
 जल्दी ही  हर स्कूल में दो दो धनुष भिजवायेगे |
कल ही हम एक फाइल वित्त मंत्री को भिजवाएंगे
अगर आप कहें तो दो चार परसेंट कमीशन आपको दिलवा देंगे |
फाइल वित्त मंत्री के पास गयी
कुछ टिप्पणी के साथ वापस आयी
कृपया धनुष कि अनुमानित लागत बताएं |
 और कृपया तीन कुटेशनभी  भिजवाये
और साथ में तीन प्रश्नों का उत्तर बताएं
धनुष टूटा तो कब ,कहाँ और क्यों
यह देख कर इंस्पेक्टर ज़ोर से चिल्लाया |
और अपने आप पर झल्लाया
आखिर मैंने यह प्रश्न पूछा क्यों  .........

(यह प्रसंग पूर्णतया काल्पनिक है मग़र इसके चरित्र हमारे समाज में है )


बुधवार, सितंबर 29, 2010

जीवन का गणित

जब मै जीवन के
जोड़, घटाने
और गुणा, भाग के
प्रश्नों को ,
हल नहीं कर पाता हूँ |
तब मै ,
मृत्यु के प्रश्न ,
पर आता हूँ |
तो  जीवन के दर्द को
हासिल की तरह
पहले से ही  वहाँ पाता हूँ |
जीवन के इस गणित में
जीवन और  मृत्यु में
दर्द का अनुपात
 मै समान ही पाता हूँ |

सोमवार, सितंबर 20, 2010

ग़लतफ़हमी



मेरी ख़ामोशी को
मेरी कमज़ोरी समझने वालों
मत भूलो कि ,
मेरे मुंह में भी जुवान रहती है |

दोस्तों के लिए
प्यार भरा धड़कता है मेरे सीने में 
और दुश्मनों के लिए ,
 मेरी कमर में हमेशा  तलवार रहती है 



मंगलवार, सितंबर 14, 2010

आज मेरी बेटी का जन्म दिन है


जी हाँ यह शीर्षक आपको कुछ अटपटा लगा होगा और लगना भी चाहिए क्योंकि इस तरह के शीर्षक से समाचार प्रकाशित करने अधिकार केवल अम्बानी, टाटा बिरला या किसी अन्य नए अमीर आदमी को है |यहाँ मै आपको विश्बास दिलाता हूँ की मै इनमे से कोई भी नही हूँ |जिसकी पुष्टि आप मेरे व्लाग के प्रोफाइल को देखकर कर सकते है | मै एक आम आदमी जिसे केवल रोटी और रोटी से मतलब है| जी हाँ यह बिलकुल सत्य है दिनांक १४सितम्बर १९८९को मेरी बेटी  पुन्नू का जन्म हुआ था | उसका जन्म एक निजी अस्पताल में आपरेशन से हुआ था | मै आपरेशन  थियेथर  दरवाजे पर ही खड़ा था |  दरवाजा खुला डाक्टर साहिबा अपने चेहरे पे नकली हँसी लाती हुई बोली बधाई हो लड़की हुई है | उस हँसी में खुशी कम और दुख ज्यादा था |मै उनके दुख के कारण खोजने  का प्रयास करने लगा | आसपास के सूचनापटों पर निगाह दौड़ाई शायद कहीं यह लिखा हो लड़की के जन्म पर डाक्टर की फ़ीस आधी मग़र बाद में याद आया वह भी उसी हिंदुस्तान में रहती जहाँ लड़की के जन्म को शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है |सामने डाक्टर की नेमप्लेट थी जिस पर नाम के नीचे डिग्री की लम्बी लाइन थी | मुझे यह बात देख कर बहुत ख़ुशी हुई की  इस विषय पर शिक्षित या अशिक्षित सब  एकमत है |
मेरे पीछे कुछ कानाफूसी चल रही है अस्पताल की नर्से कह रही है की लड़की हुई तो क्या हुआ ५०० नहीं तो ३०० तो ले ही लेंगे |मुझे ऐसा लग रहा था की वह मुझे अप्रत्यक्ष्य   रूप से संवेदना दे रही हो |
तभी हमारे मोहल्ले की काकी जल्दी से रिक्शे से उतर के अंदर आयीं और बिना पूछे ही बापस चली गयी | हुआ यह की रिक्शे वाले ने २० पैसे कम दिए थे अब काकी उससे कह रही थी भइया कहीं से भी लाओ हमको हमारे पैसे चाहिए लड़की हुई अगर ऐसे लुटाते रहे तो फिर शादी कैसे करेंगे  | इस काकी की  हमारे प्रति आत्मीयता कहें या लड़की के जन्म के प्रति उनकी अलग धारणा समझ में नहीं आता ?

आज  मेरी बेटी २१  साल की   हो गयी  अब हम उसको शिवांगी श्रीवास्तव  के नाम से पुकारते वह इंजीनियरिंग  कालिज फौर्थ इयर की स्टुडेंट है | यहाँ मै यह भी बता देना चाहता हूँ कि मेरे दो बेटियाँ है दूसरी है आरुषी  श्रीवास्तव  जो इंजीनियरिंग के सेकंड इयर में है |

अब अगर आप उस डाक्टर ,नर्स या काकी से , बेटियों के प्रति कुछ अलग विचारधारा रखते है तो उसके  जन्म दिन कि बधाई दे सकते  है आपका स्वागत .......



शनिवार, सितंबर 11, 2010

हिंदी सप्ताह के उपलक्ष्य में राजभाषा को समर्पित एक कविता


हिंदी एक पुष्प


 



रंग बिरंगे फूल खिले है 
भाषा के इस उपवन में |
सबकी अपनी सुगंध बसी है
हर मानस के मन में |
मग़र इस उपवन की शोभा को
बस एक ही पुष्प बढ़ाता
नाम पड़ा है हिंदी जिसका
और जो सबको महकता |
अपने रस की कुछ बूंदों को
जब इसने कविता में डाला
अमर हो गए कवि देश के
पन्त प्रसाद और निराला |

  
 


जिसके मन में बसी यह भाषा
या जो इसको अपनाता |
नहीं ज़रूरत किसी प्रमाण की
वह सच्चा देश भक्त कहलाता |

शनिवार, सितंबर 04, 2010

ज़िंदगी और रोटी




 दूध के दाँत जल्दी टूटने का,
 एक कारण सूखी रोटियां भी थी |
बचपन बीतने का अहसास तब हुआ
जब मैं रोटी कि तलाश को निकला |
जवानी एक रोटी से दूसरी रोटी के,
सफ़र को तय करने में  गुज़र गयी ,
और आज बुढ़ापा जली बासी रोटी कि तरह,
कचरे के डिब्बे का इंतजार कर रहा है |



(पुनः सम्पादित रचना)




सोमवार, अगस्त 30, 2010

तहजीब


तहजीब तो हमारे
पुरखों की शान होती है |
इसको संभालने में
हमारी उम्र तमाम होती है |

बेहयाई को फैशन का
जामा पहनाने वालों
मत भूलो ,तुम्हारे घर में भी
एक बेटी जवान रहती है |

सोमवार, अगस्त 23, 2010

ख़्वाबों को जीना



माना की ख्वाबों  को जीना ,
 भी कोई बुरी बात नहीं |
मग़र ख्वाबों  के टूटने पे 
टूटना भी सही बात नहीं |


अगर ख्वाबों को ही  जीना तो ,
उनको बदलने का कोई रास्ता निकाल लो |
वरना अपने ख्वाबों को ज़हर ,
देने की आदत भी डाल लो |


गुरुवार, अगस्त 12, 2010

आज का बेटा


ना जाने मै  अपनी ज़िंदगी के
किस मोड़ पर मै आया हूँ
जो मुझे छोड़ ही नहीं सकती
मै उस माँ को छोड़ आया हूँ |
 याद है मुझको, पड़ रही थी
धूप जब, ग़मों की  मुझ पर
बस उसके आँचल की छाँव थी मुझ पे 
मै आज यह भी भूल आया हूँ | 
 वह जो फर्ज की शक्ल में
अहसान हम सब  पर करती है
इसको खुदगर्जी कहूँ या मज़बूरी ?
 उनको कुछ सिक्कों से तोल आया हूँ |
बहते हुए आँसुओं से उसके ,
भींगते हुए आँचल का ख्याल था मुझको
बस इसलिए लौट कर आने का
झूठा दिलासा दे कर आया हूँ |

रविवार, अगस्त 01, 2010

"फ्रेंडशिप डे " पर एक दोस्त का दर्द



ना जाने किस तरह के  लव्ज
मेरी जुवां से फ़िसल गए |
जो सदियों से दिल में रहते थे
वह पल में निकल गए |
हालाँकि कि मुझको उनसे
कोई शिकवा गिला नहीं |
मग़र परेशां ज़रुर हूँ ,
क्या दोस्ती के मायने बदल गए |

रविवार, जुलाई 25, 2010

मग़र




सावन की रिमझिम फुहारों  में आप .
अपने जीवन का आनंद लीजिये |
मग़र टूटे मकानों में रहते है जो , 
कुछ उनकी छतों का भी ध्यान कीजिये |
सींचा है तुमने जिस वृक्ष को
आप उसे कल्प वृक्ष नाम दीजिये |
मग़र सूखे दरख्तों के गिर जाने पर
आँधियों को मत इल्जाम  दीजिये |
अपने घरों की बहू बेटियों को
आप देवियों सा सम्मान दीजिये |
मग़र रोटी से तन का जो सौदा करे
कोई उसे दूजा मत नाम दीजिये |
आँखों  से टपके जो आँसू कोई
आप उसे मोतियों  का नाम दीजिये |
मग़र रोटी को रोते हुए बच्चे के 
आँसुओं  को पानी मत मान लीजिये |

मंगलवार, जुलाई 13, 2010

क्या यही हमारा विकास है

 
माना पगडंडी को सड़क बना कर
हमने विकास का काम किया है |
और रोटी पर बिछी हुई सब्जी को
हमने पिज्ज़ा का नाम दिया है |
अब आँगन तुलसी  को तरसे ,
और बगिया तरसे  फूलों को
लगा के छत पर नागफ़नी को
 उसे रूफ गार्डन नाम दिया है |
दरकिनार कर अपनी प्रतिभा को
 कंप्यूटर को सब कुछ मान लिया है |
चोरी गड़बड़  घोटालों को ,
हमने हैकिंग का नाम दिया है |
अब मेरे घर में जगह नहीं है
अपने बूढ़े- बूढ़े  लोगों की ,
अलग बना कर घर उनका
उसे ओल्डएज होम का नाम दिया है |

बुधवार, जुलाई 07, 2010

इन आम आदमियों को भूल मत जाना


आम आदमी

तुमको तुम्हारे शहर की
सड़कों पर पड़ी ,
जिन्दा लाशों की कसम
मत डालना तुम ,
इन पर झूठी सहानुभूति का कफ़न
इनको यूँही पड़ा रहने दो
चीखने दो चिल्लाने दो
तुम्हारी सभ्यता की कहानी
इनको ही सुनाने दो
सड़क पर पड़े हुए यह लोग
हमारे बहुत काम आते है |
तभी तो हमारे राजनेता
इनके भूखे नंगे तपते हुए पेटों पर
राजनीति की रोटियां सेंक जाते है |
इनको तरह तरह से 
उपयोग में लाया जाता है |
कभी राम कभी अल्लाह के नाम पर ,
इनका  ही  तो खून बहाया जाता है
और कभी कभी अपनी सियासत,
चमकाने और ताकत दिखाने के लिए
इन आम आदमियों के नाम पर
भारत बंद बुलाया जाता है |
चुनावों के समय हम ,
इनको आम जनता कहते है |
और फिर आने वाले चुनावों तक ,
आम की तरह चूसते रहते है |
यह रोते है तो रोने दो
मत जगाओ, सोने दो |
जिस दिन यह सोता हुआ,
आम आदमी जाग जायेगा ,
उस दिन से संसद का रास्ता
बहुत कठिन  हो जायेगा |

शनिवार, जून 05, 2010

एक परित्यक्ता को सांत्वना

 
क्यों सहती हो ?

कल कल बहती नदी यहाँ पर
मंद पवन भी कुछ कहती है | 
फिर साँसों के रथ पर सवार हो कर,
तुम गुमशुम सी क्यों रहती हो | 
थोड़ा सा ग़म बाँट लो तू भी
तुम इतना ग़म क्यों सहती हो |
तुमने उसको अपना माना,
पर उसने, उसको अपना जाना
जिसने तुमको  कुछ न माना,
क्यों उसको अपना कहती हो |
थोड़ा सा ग़म बाँट लो तुम भी
तुम इतना ग़म क्यों सहती हो |
नहीं प्रेम अब एक तपस्या ,
अब तो यह व्यापार बना है |
और न तुम मीरा न वह कृष्ण , 
फिर विष का प्याला क्यों पीती हो |
थोड़ा सा ग़म बाँट लो तुम भी
तुम इतना ग़म क्यों सहती हो |
जिस जीवन में बरसे प्रेम सुधा , 
तब एक प्रेम वाटिका  बन जाती है |
क्यों नागफनी के जंगल में
अब खुशबू को ढूंढा करती हो |
थोड़ा सा ग़म बाँट लो तुम भी
तुम इतना ग़म क्यों सहती हो |



मंगलवार, मई 25, 2010

पाठकों को तरसती एक प्रतीकात्मक कविता

मिटटी का प्रश्न

गुँथी हुई मिटटी का प्रश्न
घूमते हुए चाक से
मुझे क्या बनना है |
शीतल जल की गगरी
या गर्म पेय का पात्र,
मिटटी के प्रश्न पर
चाक का भौचक्का रह जाना |
चलते चलते रुक जाना
गहरी सोंच में डूब जाना |
क्षण  भंगुर जीवन
और इतना गंभीर चिंतन
अचानक चाक का
मिटटी की मानव से तुलना करना
 फिर खिलखिलाकर हँसना
और एक बार फिर वह
शुरू कर देता है घूमना |



सोमवार, अप्रैल 12, 2010

मेरा परिचय

मै बह एक आम आदमी हूँ जिसके जीवन मे डर और समस्याओं के सिवा कुछ भी नहीं होता है | जब बह साइकल पर चल रहा होता है | तब बह स्कूटर से डरता है और जब बह स्कूटर पर चलता है तब बह कार से डरता है इस तथाकथित सभ्य और शिक्षित समाज में अपना स्थान बनाने के लिए १२३ समझौता ,कीमती कारों और टीवी के बढते हुए दाम,कश्मीर मे घुसपैठ , नक्सली समस्या पर बात करना जिसकी मज़बूरी बन जाती है जबकि उसका लक्ष्य सुबह शाम की रोटी के सिवा और कुछ नहीं है | जमाँ पूंजी के नाम उसके पास रिश्तों की एक लम्बी फेहरिस्त है जो दादा दादी , नाना नानी से शुरू हो कर पोता पोती नाती नतिनी तक है ब्लॉग लिखना मेरी मज़बूरी है ताकि मै अपने जीवन की हताशा को शब्दों के माध्यम से व्यक्त कर सकूँ |