मंगलवार, जून 28, 2011

हम चुप रहे हम हँस दिए ........( हास्य )


बात उन दिनों की है जब मेरी नौकरी करना शुरू की थी | मेरी आदत थी शाम को  सोना और 
रात  में नींद ना आने की शिकायत करना | मेरे  बड़े भाई समझाते थे जब रात में कुछ 
पढ़ोगे तो रात में नींद अच्छी आयेगी इस लिए उन्होंने कुछ तकनीकी किताबें मुझे दे दी |
एक दिन वह जब भाभी के साथ शाम को खाने के बाद घूमने को गए तो जाते समय कहा 
कि दूध गैस पर चढ़ा है, इसको थोड़ी देर बाद उतार  लेना | मैं पढ़ने में लग आया और जाने 
 कब  नींद लग गयी | थोड़ी देर बाद जब  आँख खुली तो देखा कमरे में धुँआ भरा हुआ था और
जलने कि बदबू पूरे घर में भरी हुई थी |जल्दी जल्दी पंखा  चलाया और लाइट जला कर देखा 
तो सामने था जला काला भगोना | कहीं किसी को मालूम ना पड़ जाये बाहर जाकर दूध ले 
के आया और उसी तरह  भगोने  में   धोकर रख  दिया |
अगले दिन सुबह भाभी , भाई से कह रहीं थीं देखो तुम कहते हो छन्नो ( हमारी काम वाली )
से कुछ मत कहा करो बेचारी गरीब है किस मज़बूरी में काम कर रही है , एक दिन डांटा और 
निकालने कि धमकी  दी तो कितना साफ बर्तन धोने लगी है यह भगोना तो देखो ....
मैं वहीँ खड़ा था  और चुप था ......क्योंकि हम चुप रहे हम हँस दिए  मंजूर था पर्दा मेरा .......


            मैं जरुर चुप था मगर आप हँस भी सकते है !


रविवार, जून 26, 2011

चलो थोडा सा रूमानी हो जायें ............. ( ग़ज़ल)






वह समंदर भी अब तो हमको आबे-हयात लगे, 
जिसमें दरिया तेरे शहर का बस आकर मिले|

तेरी मुहब्बत ने बदल दी अब तो फ़ितरत अपनी,
आज तो हमको अपना, रकीब भी अज़ीज़ लगे|

गुमाँ गुलशन को तेरे आने का हो गया होगा,
तभी तो टूट कर गुल तेरी राहों में बिखरने लगे|

तू आये या ना आये, अब यह कोई मुद्दा ही नहीं,
यह क्या कम है कि तेरे दीदार अब ख्बाबों में होने लगे|



  

गुरुवार, जून 23, 2011

विचारों का जीवन चक्र



ज़ारी है अनवरत,
विचारों का अवागमन
मष्तिक के आँगन में
कुछ का एक पल ठहरना
और चले जाना
कुछ का आपसी
द्वन्द में ,
समाप्त हो जाना |
बचे हुए विजयी विचारों का
मष्तिक में,
हलचल पैदा करना|
और कुछ क्रियान्वित
होने से पूर्व,
परिणाम की सोंच कर
मर जाते है|
जो बचते है,
वही आदमी की,
पहचान बनाते है |




मंगलवार, जून 21, 2011

कैसी है सरकार मेरी और कैसे हुक्मरान है ?

 वैसे सबसे अच्छी सरकार मेरे देश की है|वह किसी को भी अनशन करके भूख से नहीं 
 मरने देती| चाहे कोई गरीब भूख से मर जाये| जब किसी देश में भुखमरी होती है तो 
 वह एक अंतर्राष्टीय मुद्दा बन जाता| और यह सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है|
 इसी सरकार का एक गीत प्रस्तुत है| (यह एक नया प्रयोग है) 


कैसी है सरकार मेरी और कैसे हुक्मरान है|
सो रहे है यह चैन से और जनता परेशान है|

यह रोज नये नये कुछ मुद्दे ढूंढ़ लाते है|
भूख और आतंक का मुद्दा भूल जाते है|
मुद्दों की तो राजनीति यह नहीं जानते,
मुर्दों पर राजनीति बस इनका काम है|

कैसी है सरकार मेरी और कैसे हुक्मरान है|
सो रहे है यह चैन से और जनता परेशान है|

दहलती दिल्ली कभी जयपुर भी जलता है|
आग अहमदाबाद में हो या सूरत सुलगता है|
एक नये हादसे का बस इनको इंतजार है|
हादसों की गिनतियाँ अब बस इनका काम है|

कैसी है सरकार मेरी और कैसे हुक्मरान है|
सो रहे है यह चैन से और जनता परेशान है|

जख्मों पे हमदर्दी का यह मलहम लगाते है|
लाशों पर मुआवज़े का कफ़न डाल जाते है|
एक ही बयान से अपना पल्ला झाड़ लेते है|
एक बात कहते है यह पड़ोसियों का काम है| 

कैसी है सरकार मेरी और कैसे हुक्मरान है|
सो रहे है यह चैन से और जनता परेशान है|



शनिवार, जून 18, 2011

ऐसा क्यों होता है ?



मेरी पिछली पोस्ट यह कैसा रिश्ता ? (लघु कथा) जिसमें एक बेटे ने पिता को  दूर का 
रिश्तेदार बता दिया |टिप्पणियों के रूप में कुछ लोगों ने इसे एक सामान्य घटना 
मान कर , बदलते हुए वक्त को कसूरवार ठहरा दिया | अब प्रश्न उठता है कि क्या 
हमारे यह खून के रिश्ते शब्दों तक सीमित रह गए है |  अगर आपका उत्तर हाँ है 
तो इसका दोषी कौन है ?                                                      


इसी पर मतला और एक शेर अर्ज किया


आजकल उसको तो,
उनकी हर बात बेमानी लगे |
उनकी दास्तानें हकीक़त,
भी उसको अब कहानी लगे|


जिनकी दुआओं से बुलंदियों का
मुक़ाम हासिल कर जिसने|
वहां से अब तो माँ -बाप की,
सूरतें  भी उसको अनजानी लगे |




बुधवार, जून 15, 2011

रिश्तों का महल

सहमीं है आज,
रेतीली बुनियाद पर खड़ीं 
रिश्तों की कच्ची दीवारें|
समाया है डर मन में ,
अमीर-गरीब और, 
छोटे बड़े के आघात का|
एक पल में बिखर जाने का 
एक घर के,
खंडहर में बदल जानें का|
एक उनके प्यार की 
कहानी सुनाएगा |
तो दूसरा उनकी,
बर्बादी की याद दिलाएगा |

रविवार, जून 12, 2011

मेरी किस्मत में वह क्यों था ?


आज फिर एक पुरानी रचना जो मुझे  अच्छी लगती है  अब क्या  ख्याल है आपका !

आसमान में लाखों तारे
पर एक ही तारा मुझको भाया |
और टूटा वह, एक ही तारा ,
जो मेरी किस्मत में आया | 
चलो मान ही लेता हूँ मै ,
यह मेरी किस्मत में लिखा हुआ था |
मगर फिर क्या दोष था उसका , 
जो आसमान में में सजा हुआ था |
हम दोनों की एक ही किस्मत
हम दोनों की एक सी बातें |
साथ में अपने रहते लाखों
फिर भी अकेले हम कहलाते |
एक विविधता हम दोनों की
जो आज मेरी समझ में आयी |
उसका अपनों से सच्चा रिश्ता
और मेरा अपनों से मिथ्या नाता ,
तभी तो उसका जीवन एक कथा है
और मेरा जीवन एक व्यथा है |

गुरुवार, जून 09, 2011

आज कल के हालात पर चंद शेर


जमीं तो बाँट ली हमने अब आसमाँ की बारी है ,
संभल जाओ ए चाँद और सूरज अब खैर नहीं तुम्हारी है |

अँधेरे आजकल  बदनाम होने  से यूँ बच गए,
अब तो दिन दहाड़े ही गुनाहों का खेल जारी है |

अब तो  सरेआम लुट रहीं हैं अस्मतें बाज़ार में,
मगर अदालतों में वकीलों की गवाहों से ज़िरह जारी है |

 शहर में आजकल चोर डाकुओं का खौफ़ कुछ भी नहीं ,
 बस सफ़ेद टोपियों और खाकी वर्दियों का कहर जारी है |

उधर सरहद पर मर रहें है दो चार लोग रोज़ ,
इधर दोस्ताना माहौल में दोस्ती की बातचीत जारी है |

यह कैसी  बिसात बिछी है सियासत के मैदानों में ,
कि बाज़ी कोई भी जीते पर हार तो हमारी है |


    

बुधवार, जून 08, 2011

आज कुछ अलग सा ..........


कभी- कभी  हम बड़े होने के बाद भी अपने अन्दर छिपे बचपन को 
बाहर आने से नहीं रोक पाते हम यह चाहते हैं की हम अपने पिता 
के कंधे पर चढ़ जाएँ या अपनी माँ की गोद  में लेट जाएँ | कभी किसी 
मेले में जाकर बच्चों वाले झूले  पर बैठ कर जोर जोर से चिल्लाएं ,
और आते समय पीं पीं की अवाज करने वाला बाजा बजाते हुए हाँथ 
में गुब्बारे लेकर  घर आयें | कभी कभी हम ऐसा करते भी है | 
यह  दिल की आवाज होती है  .
आज मैं कुछ बड़ों की बच्चों जैसी  सोंच पर  बनायी गयी पेंटिंग ,कृति 
पेश कर रहा हूँ |
क्योंकि दिल तो बच्चा है जी .....


कुमारी कृष्णा राठौड़   ,स्नातक डिग्री इलेक्ट्रोनिक एंड कम्युनिकेसन ,
परमाणु उर्जा विभाग के नाभिकीय  ईधन समिश्र , हैदराबाद में वैज्ञानिक 
अधिकारी के पद पर कार्यरत है |







                        शिवांगी श्रीवास्तव , इलेक्ट्रनिक एंड कम्प्यूटर में स्नातक डिग्री और 
      कॉग्निजेंट   टेक्नोलोजी सोल्यूशन  में  प्रोग्रामर  अनालिस्ट  ट्रेनी  के पद पर नियुक्त है |
                                                                              
                 









              


शनिवार, जून 04, 2011

बदलते मिज़ाज की ग़ज़ल ..


 तंगहाली का एक पत्थर जो आकर  मेरे आँगन  में गिरा ,
 ख्वाहिशों को अपाहिज़ और ज़ज्बों  को लंगड़ा कर गया |

जो तफ़्सील से सुना रहा था  ज़माने की दास्ताँ ,
वह अपने दिल की बात  बस इशारों में कह गया | 

दो चार शेर क्या  पढ़  दिए, मैंने उसकी शान में ,
रियाया समझ कर अपनी, वह मुझपे राज कर गया |

मुहब्बत क्या मिली उसको  वह खुद को दौलतमंद समझ बैठा  ,
एक दिन तो वह अमीर ए शहर को भी नज़र अंदाज़  कर गया |

  ना जाने अपने कलाम में, मैंने ऐसा क्या पढ़  दिया ,
 मुझे इतनी मिली दाद कि मै खुद हैरान रह गया |



गुरुवार, जून 02, 2011

आशा और निराशा


जब जब दस्तक देती मेरे ,
मन के दरवाजे पर आशा |
खुलते पट जब दरवाजों के
मिलती सामने उसे निराशा |



नहीं किया निराश कभी मैंने ,
चौखट पर खड़ी हवाओं को
जला दिए है दीप अश्क के ,
बस उनके लिए बुझाने को |