मेरी पिछली पोस्ट यह कैसा रिश्ता ? (लघु कथा) जिसमें एक बेटे ने पिता को दूर का
रिश्तेदार बता दिया |टिप्पणियों के रूप में कुछ लोगों ने इसे एक सामान्य घटना
मान कर , बदलते हुए वक्त को कसूरवार ठहरा दिया | अब प्रश्न उठता है कि क्या
हमारे यह खून के रिश्ते शब्दों तक सीमित रह गए है | अगर आपका उत्तर हाँ है
तो इसका दोषी कौन है ?
इसी पर मतला और एक शेर अर्ज किया
आजकल उसको तो,
उनकी हर बात बेमानी लगे |
उनकी दास्तानें हकीक़त,
भी उसको अब कहानी लगे|
जिनकी दुआओं से बुलंदियों का
मुक़ाम हासिल कर जिसने|
वहां से अब तो माँ -बाप की,
सूरतें भी उसको अनजानी लगे |
कितने सारे बुजुर्ग हमारे, सिर पटकें अपने द्वारे
जवाब देंहटाएंआरुषि-प्यारी, कांड निठारी, ममता बच्चे को मारे,
खून-खराबा, मौत-स्यापा, मानवता हरदम हारे
काम-बिगाड़े किन्तु दहाढ़े, लगा जोर जमकर नारे
मानव-अंगों का व्यापार, सत्संगो का सारोकार
बिगढ़ै पावन तीरथ धाम, बचा लो धरती, मेरे राम ! 8 !
bhur hi arthak post...
जवाब देंहटाएंसच कहा।
जवाब देंहटाएंबहुत से घरों में बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति व्यवहार अत्यंत व्यथित करने वाला है।
जवाब देंहटाएंसुंदर शेर।
जवाब देंहटाएं---------
ब्लॉग समीक्षा की 20वीं कड़ी...
2 दिन में अखबारों में 3 पोस्टें...
Bahut Sunder ....
जवाब देंहटाएंस्थिति निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है पर लोगों को सम्बन्धों पर जब अभिमान न रहे तो यही दिशा मिलती है समाज को।
जवाब देंहटाएंआज के सत्य को कहते हुए अशआर
जवाब देंहटाएंसच्ची बात,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जी हाँ आज की सच्चाई को बताया है आपने ! आज कल माँ बाप की तभी तक पूंछ है जब तक की उनसे आपको कुछ भी फायदा नजर आता है नहीं तो आज के एकल परिवार के युग में माँ बाप एक बोझ ही हैं | यह स्थिति बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण है !!
जवाब देंहटाएंसच्चाई तो यही है माँ बाप बोझ ना भी हों पर समय की कमी और दूरियां भी इस खायी को बनाने में जिम्मेदार हैं.
जवाब देंहटाएंदेखते हो केवल रंग-रूप तुम,
जवाब देंहटाएंउससे रिसता लहू भी देखो...
भ्रमित हुए हैं जीवन में कितने.
कुछ अंतस में भी घुस कर देखो.
अंगुलि थाम चलना सिखलाया जिन्हें कभी मैं,
जवाब देंहटाएंआज उन्हीं की अबोघता से व्यथित हुआ हूं।
क्या बात है.............
जवाब देंहटाएंआपकी रचना बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएं--
पितृ-दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
सुनील जी,
जवाब देंहटाएंइस मतले और शे’र पर कहने के लिए कुछ बचा नही हमारे रिश्तों के खोखलेपन को नंगा कर दिया।
मदर्स डे और फादर्स डे के बीच न जाने कितने ही माँ-बाप अपने होने की सजा भोग रहे हैं.... आज समाज में वृद्धाश्रमों की बढ़ती हुई कतार हमारे पत्थर हो जाने को बयाँ कर रही है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
भाई सुनील जी बहुत सुंदर कविता /गज़ल बधाई और शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंइसका दोष सिर्फ बच्चोंको नहीं दिया जा सकता !
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना है !
Bahut khoob! kya badhiya baat kahi hain aapne sir!
जवाब देंहटाएंbadhaai!
जब मानव कहलाने वाला जीव मनुष्यता छोड़ देता है तो यह परिस्थिति पैदा हो जाती है वर्ना गाय तो अपने बछडे के लिए कुछ तो दूध बचा ही लेती है॥
जवाब देंहटाएंsharmnaak
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील चिंतन ....
जवाब देंहटाएंपरिवेश और परवरिश दोनों का संयक्त नतीजा है यह अ- संलग्नता .
जवाब देंहटाएंदर-असल आज हमारा समाज जिस भौतिकवाद के पीछे सरपट दौड़ लगाये है उसमें ऐसे ही हालात होने हैं.हमने रिश्तों के ऊपर रुपयों को तरजीह दी है !
जवाब देंहटाएंयक्ष प्रश्न ! मुझे लगता है हर की एक समय तक भूमिका होती है उसके बाद वह अप्रासंगिक हो जाता है -
जवाब देंहटाएंइसलिए मनुष्य को आसक्ति से बचना चाहिए
दोष इसमें अपना ही है ... और ये ठीक होना आसान भी नहीं ... रिश्ते बदल रहे हैं समय की साथ ...
जवाब देंहटाएंयथार्थवादी रचना !आज के समय की यही मजबूरी है...
जवाब देंहटाएंmarmik yatharth
जवाब देंहटाएंbadalte rishto kee gazal... sundar
जवाब देंहटाएंजो तब नही समझे,उन्हें कुछ और कहना बेकार है।
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