रविवार, फ़रवरी 19, 2012

मानव और नदी ............




एक नदी 
पहाड़ों से निकली 
पत्थरों से टकराकर 
राह बदल कर 
नए नए नाम  पाकर 
हंसती कूदती ,
जा मिली 
प्यार के सागर में ।
और एक मानव ,
पाषाण युग से 
निकल कर ।
कंक्रीट के जंगल में रह कर 
बन गया पत्थर , 
खो गया ,
पुन: पथरीली अँधेरी गुफाओं में ।


28 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन भाव लिए कविता बधाई

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  2. क्या गहरा कटाक्ष किया है तथाकथित मानवीय विकास पर..

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  3. और एक मानव ,
    पाषाण युग से
    निकल कर ।
    कंक्रीट के जंगल में रह कर
    बन गया पत्थर , waah......bahut khoob.

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  4. मनुष्य की प्रगति का पहिया तो उल्टा घूम गया...

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  5. क्या बात है
    परस्पर विरोधी गति

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  6. वाह!!!!!बहुत सुंदर कटाक्ष करती प्रस्तुति, सुंदर रचना,....बेहतरीन

    MY NEW POST ...सम्बोधन...

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  7. पानी और मानव भले ही अपना रास्ता बदल दे पर पत्थर तो वहीं है ॥

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  8. वाह बहुत सुन्दर और सार्थक भाव...

    ओम् नमः शिवाय...

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  9. सही कहा आपने, मानव फिर गुफावासी हो गया है।

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  10. मानव पत्त्थर बनता जा रहा है...सच है, बहुत गहरी बात !

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  11. नदी में गेयता है और मनुष्य गुलाम हो के रह गया अपनी ही विचारधारा में ...
    सार्थक रचना है ...

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  12. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच
    पर की गई है। चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......

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  13. उत्तर
    1. बहुत सुन्दर सृजन , बधाई.

      मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नवीनतम पोस्ट पर आप सादर आमंत्रित हैं.

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  14. पाषाण युग से
    निकल कर ।
    खो गया ,
    पुन: पथरीली अँधेरी गुफाओं में...

    वाह! बहुत सार्थक रचना...
    सादर बधाई..

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  15. सच तो यह है की जिंदा रहने की होड़ में ...वह प्रकृति से बहुत दूर हो गया है ...और वास्तव में एक किले में क़ैद हो गया है

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  16. तथा कथित मानवा स्थिति पर लिखी सशक्त रचना...

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  17. वाह! मानव के तथाकथित विकास पर बहुत सुंदर प्रस्तुति..

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  18. वाह||
    बहूत सुंदर ..
    छोटी सी किंतु...सारगर्भित रचना..
    बेहतरीन प्रस्तुती...mauryareena.blogspot.com

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  19. इसे कहतें हैं व्यंग्य की धार .

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  20. बहुत सुन्दर भाव
    िवचारों का बहाव
    लय के माध्यम से,
    समझाने का चाव....बहुत सुन्दर...

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