अपनी गली का रास्ता पूछते है,
आज हम बस्ती की नयी दुकानों से |
हो रही हैं पहचान अब अपनी,
बस्ती के पुराने मकानों से |
कभी जिन गलियों में छिपते थे ,
हम डर कर पकड़े जाने से |
आज उन्हीं में घूमते रहे हम ,
बस यूहीं घंटों बेगाने से |
जहाँ थे लहलहाते खेत कभी ,
खड़ी है वहां अब इमारतें ऊँची|
रास्ता धूप का रोक लेती है वह
अब मेरी खिड़की में आने से |
याद आती है आज भी वह ,
मेरे गाँव की बूढी काकी |
जो अक्सर फूटकर रो पड़ती थी
बस हमारे झूठे रूठ जाने से |
(एक पूर्व प्रकाशित पुन: सम्पादित रचना)
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ..
जवाब देंहटाएंआज यही सच है.. कितने बेगाने...
bahut bhawuk......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सुनील जी
जवाब देंहटाएंकंक्रीट जंगल में यही तो हाल होना है सुनिल जी :(
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना. दुबारा शेयर करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंकभी जिन गलियों में छिपते थे...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता है सुनील जी. बधाई.
जब अन्धाधुन्ध जनसख्या बढ़ेगी तो यही तो होगा..
जवाब देंहटाएंbeautiful n thought provoking :)
जवाब देंहटाएंBehtreen Panktiyan....
जवाब देंहटाएंअतीत से निकलती ....वर्तमान की सच्चाई ........बहुत खूब
जवाब देंहटाएंअपनी ही बस्ती जब पहचान में नहीं आती अपने ही घर का पता जब पूछना पड़ता है तो ऐसी ही रचना का जन्म होता है..
जवाब देंहटाएंoh my god.... itna sunder...ek ek lafz padhne layak...hatts off to u sir
जवाब देंहटाएंखुबसूरत और बेहतरीन प्रस्तुति ....
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण ... अक्सर पीछे लौटना सुखद लगता है ...
जवाब देंहटाएंबड़ी सुन्दर पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंकल शनिवार २७-०८-११ को आपकी किसी पोस्ट की चर्चा नयी-पुराणी हलचल पर है ...कृपया अवश्य पधारें और अपने सुझाव भी दें |आभार.
जवाब देंहटाएंदिल को छूने वाले भाव हैं । ऐसा अनुभव मुझे भी हुआ है। बड़े होकर उन गलियों में यूँ ही आवारगी करना जहाँ कभी बचपन बीता, बड़ा बेगाना सा एहसास उभर कर आता है। वे जिनके साथ हम घंटो बैठकर खेलते थे या तो मिलते नहीं, गलती से दिख गये तो इतने व्यस्त की दो-चार बातों के बाद ही कह उठते हैं...आज जरा जल्दी में हैं..कभी छुट्रटी में घर आओ..पत्नी को लेकर...नमस्कार। अपनी गलियों में अजनबी की तरह भटकने का एहसास अनोखा होता है। आपने बहुत कुछ याद करा दिया।
जवाब देंहटाएंऐसा ही होता है। भावुक करती रचना।
जवाब देंहटाएंbhaavpurn rachna, shubhkaamnaayen.
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बदल गया अब या तो हम अपनी पहचाना खो बैठे हैं -एक सटीक सपाट बयानी !
जवाब देंहटाएंअपना गाँव और अपने, कभी भूले से भी बुलाये नहीं जा सकते
जवाब देंहटाएंसुन्दर सटीक और भाव पूर्ण रचना..आभार....
जवाब देंहटाएंbahut sunder lagi aapki rachna .......
जवाब देंहटाएंसुनील जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कार,
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगसपाट डाट काम" के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|
भावुक करती रचना।
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर लिखा है आपने... क्या बात है ..
अतीत और वर्तमान के अंतर को रेखांकित करती सुन्दर रचना!
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