शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

न्याय या सौदा ?



सामने  के प्लाट में खुदाई का काम तेजी से चल रहा था | सुनने 
में आया कि एक बहुमंजिला  ईमारत बनने वाली है | मजदूरों के 
साथ साथ मशीनों का शोर भी मुझे परेशान कर रहा था | मजदूर 
एक दुसरे से मजाक करते हुए अपने काम में लगे रहते और 
बीच बीच में ठेकेदार कि गालियाँ  भी खाते रहते थे | उन्ही में था एक
राम  खिलावन बीस बाईस साल का हंसमुख  नौजवान , उसके साथी 
उसे छेड़ते हुए पूछते थे "व्याह  तेरा होगा की नाहीं या कुंबारा ही मरिहो?
वह बहुत रौब से कहता था" देखना  इ  जेठ में शादी ओउर अगले जेठ में 
लड़का" सब इस पर हँसते और अपने कम पर लग जाते |
कुछ दिनों के बाद वह अपने गाँव गया और शादी करके अपनी बीबी 
के साथ एक टीन का बक्सा और साईकिल भी लेके आया |
रोज सुबह शाम को टीन का बक्सा बजा कर गाना गाता" हमरे अंगना खेले मोरा लाल " कुछ दी तक सब सामान्य रहा |
 फिर एक दिन अचानक ठेकेदार की नजर उसकी बीबी पर पड़ी
 फिर  वही हुआ जिसका डर था |
पुलिस आयी पंचायत बैठी और थमा दिए गए कुछ रुपये उसके हाँथों में 
अगले दिन जब टीन का बक्सा नहीं बजा तो लोग अन्दर गए जो देखा 
सब स्तब्ध रह गए क्योंकि दो लाशें छतपर  लटक  रही थी और उनके हांथों में वह रुपये थे और  ऑंखें खुली थी जैसे वह पूछ रही हों क्या यही
 तुम्हारा न्याय है या  चुप रहने का सौदा ? अगर यह सौदा था |   
 तो हमें मंजूर है | क्योंकि अब हम  चुप हो गये हमेशा के लिए ....






  

35 टिप्‍पणियां:

  1. उफ़ रौंगटे खडे कर देने वाला भयावह सच है।

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  2. बेहद दर्दनाक...
    किन्तु आज की हकीकत.

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  3. और हम कहते हैं कि हम तरक्की कर गये हैं!! शर्मनाक घटना!! निंदनीय!!

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  4. हा गरीबो के साथ ऐसे ही न्याय होता है किन्तु इस तरह चुप होने वाले कम ही होते है कई बार न्याय के नाम पर सौदे में वो भी शामिल होते है क्योकि जानते है की न्याय तो उन्हें कभी नहीं मिलेगा कम से कम कुछ पैसे तो मिले ताकि अन्याय को भुलाने का कुछ बहाना तो मिल सके |

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  5. जो सहन नहीं कर पाते वो मर जाते हैं और अनेकों ऐसे हैं जो परिस्थिति से समझौता कर रोज जहर पीते हैं । ये संसार शक्तिशाली और शक्तिविहीन वर्गों में बंटा है , शोषण और अत्याचार पता नहीं कब खत्म होगा , ये वीभत्स और दर्दनाक सत्य है ।

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  6. ये एक ऐसी रचना है जो हम आए दिन अखबार में पढ़ते हैं
    ऐसी बातें किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को स्तब्ध कर देती हैं
    कब होगा ऐसी शर्मनाक घटनाओं का अंत ?

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  7. ऐसी घटनाएं हमारे आसपास घटती ही रहती हैं। कुछ अखबारों की सुर्खियां बनती हैं, कुछ दफन कर दी जाती हैं।
    शर्मनाक। 21 वीं सदी के भारत की घिनौनी तस्‍वीर।

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  8. ओह हृद्य को बीन्ध देने वाली घटना। बस निशब्द हूँ। आभार।

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  9. खुद मर जाने से अच्छा होता साथी मजदूरों को इक्ट्ठा कर विरोध प्रकट करना,लेकिन गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप है,यह भीतर से कमजोर कर देती है, मार्मिक रचना !

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  10. बहुत ही भयानक सच्चाई से रूबरू कराया आपने.

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  11. मार्मिक घटना बयान की आपने। गांव वालों को शहर के जंगल के वहशि‍यों का पता चलने में काफी देर लगती है।

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  12. बहुत दुखद अंत पर वास्तविकता के बहुत करीब शायद इसीलिए गरीबी इतनी भयावह नज़र आती है क्युकी इसमें इन्सान अपने बचाव का कोई साधन तक जुटा नहीं पाता और आखिरी रास्ता सिर्फ यही दुखद अंत होता है |
    मार्मिक रचना |

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  13. ब्लॉग को वर्ष पूर्ण होने पर बधाई.....शुभकामनाएं...

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  14. सौदा तो तब पूरा होता जब मरने से पहले ठीकेदार को मार कर मरते। घाटे का सौदा।
    ..विभत्स!

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  15. खौफनाक पर सच्चाई बयां करती हुई पोस्ट. वास्तविकता के बहुत करीब.

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  16. मेरे ब्लॉग की ---http://archanachaoji.blogspot.com/2011/02/blog-post_19.html-----इस पोस्ट पर की गई आपकी टिप्पणी को मद्देनजर रखकर दी थी मैने बधाई....

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  17. महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा के ब्लॉग हिन्दी-विश्व पर २६ फ़रवरी को राजकिशोर की तीन कविताएँ आई हैं --निगाह , नाता और करनी ! कथ्य , भाषा और प्रस्तुति तीनों स्तरों पर यह तीनों ही बेहद घटिया , अधकचरी ,सड़क छाप और बाजारू स्तर की कविताएँ हैं ! राजकिशोर के लेख भी बिखराव से भरे रहे हैं ...कभी वो हिन्दी-विश्व पर कहते हैं कि उन्होने आज तक कोई कुलपति नहीं देखा है तो कभी वेलिनटाइन डे पर प्रेम की व्याख्या करते हैं ...कभी किसी औपचारिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करते हुए कहते हैं कि सब सज कर ऐसे आए थे कि जैसे किसी स्वयंवर में भाग लेने आए हैं .. ऐसा लगता है कि ‘ कितने बिस्तरों में कितनी बार’ की अपने परिवार की छीनाल संस्कृति का उनके लेखन पर बेहद गहरा प्रभाव है . विश्वविद्यालय के बारे में लिखते हुए वो किसी स्तरहीन भांड से ज़्यादा नहीं लगते हैं ..ना तो उनके लेखन में कोई विषय की गहराई है और ना ही भाषा में कोई प्रभावोत्पादकता ..प्रस्तुति में भी बेहद बिखराव है...राजकिशोर को पहले हरप्रीत कौर जैसी छात्राओं से लिखना सीखना चाहिए...प्रीति सागर का स्तर तो राजकिशोर से भी गया गुजरा है...उसने तो इस ब्लॉग की ऐसी की तैसी कर रखी है..उसे ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ की छीनाल संस्कृति से फ़ुर्सत मिले तब तो वो ब्लॉग की सामग्री को देखेगी . २५ फ़रवरी को ‘ संवेदना कि मुद्रास्फीति’ शीर्षक से रेणु कुमारी की कविता ब्लॉग पर आई है..उसमें कविता जैसा कुछ नहीं है और सबसे बड़ा तमाशा यह कि कविता का शीर्षक तक सही नहीं है..वर्धा के छीनाल संस्कृति के किसी अंधे को यह नहीं दिखा कि कविता का सही शीर्षक –‘संवेदना की मुद्रास्फीति’ होना चाहिए न कि ‘संवेदना कि मुद्रास्फीति’ ....नीचे से ऊपर तक पूरी कुएँ में ही भांग है .... छिनालों और भांडों को वेलिनटाइन डे से फ़ुर्सत मिले तब तो वो गुणवत्ता के बारे में सोचेंगे ...वैसे आप सुअर की खाल से रेशम का पर्स कैसे बनाएँगे ....हिन्दी के नाम पर इन बेशर्मों को झेलना है ..यह सब हमारी व्यवस्था की नाजायज़ औलाद हैं..झेलना ही होगा इन्हें …..

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  18. sach mein vastvikta ke kareeb , rongte khadi karne wali rachna , ek serial chal raha hai , ''rishton se badi pratha '' usmein bhi kuch aisa hi tha

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  19. भगवान् ना करे की ये सच घटना हो...

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  20. मार्मिक.
    वाक़ई बहुत बुरा समय आ गया है.

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  21. मारमिक कथा। पर न्याय पाने के लिए एक जुटता का अभाव। साथी मज़दूरों की निरीहता।

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