गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

क्या यही है हमारी पहचान



देखने में लगभग सात आठसाल का एक बच्चा फटे पुराने कपड़े 
या उन्हें चीथड़ा कहें आपने शरीर पर लपेटे हुए एक किराना शाप 
के सामने बैठा हुआ था | जैसे वह दुकान की सीड़ियाँ चढ़ने की 
कोशिश करता तभी दुकानदार दुत्कार कर भगा देता | वह  दो तीन 
बार प्रयास कर चुका था हर बार दुकानदार की गलियों में अभद्रता 
बढती जाती थी | वह चिल्लाकर कह रहा था कहाँ से चले आते है 
सवेरे सवेरे भीख मांगने वाले , दुकान खुली नहीं की सिर पर सवार हो 
गए | इस बार उसने अपनी  मुठ्ठी में दबे दस के नोट को आगे कर 
कहा " टॉफी लेनी है "  दुकानदार ने आपने स्वर में मधुरता लाते हुए कहा 
अन्दर आकर बताओ कौन सी टॉफी ?

38 टिप्‍पणियां:

  1. हमें स्वार्थ के सिवा और नजर भी क्या आता है ...बहुत विचारणीय ...आपका शुक्रिया

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  2. hamse pehchan karne mein hamesha hi bhool hoti hai ''''yahi to hamari bhool hai;;;;;;;;;;;;;

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  3. भौतिकता में मानवीय संवेदना लुप्त हो रही है।

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  4. आज यही पासपोर्ट बन गया है, इज़्ज़त पाने का!!

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  5. दोहरे व्यक्तित्व हर जगह मिल जायेंगे। आभार।

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  6. यही है आज का युग जहाँ स्वार्थ ही सब कुछ है.

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  7. दोगले व्यक्तित्व में जीता है हमारा समाज ...
    अच्छा व्यंग है ....

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  8. बाहरी दिखावा ही बन गया है आज के व्यक्ति की पहचान..सटीक व्यंग

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  9. दुनिया में सिर्फ स्वार्थ रह गया है .. यहाँ मानवता की उम्मीद ...... बेकार है
    सच्चा चित्रण

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  10. हमें चिथडों में लिपटा भारत का नागरिक नज़र नहीं आता. हाँ मुट्ठी में रखे नोट को हम पहचानते हैं.

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  11. आदरणीय सुनील जी
    यांत्रिक गड़बड़ी के कारण जो आपको असुविधा हुई उसके लिए क्षमाप्रार्थी हुॅ। मैने उस रचना को दोबारा पोस्ट किया है। आपके आगमन का इंतजार है। अब आपकी रचना पर आता हुॅ।
    मेरे ख्याल से अब दुनिया में भगवान की पुजा को छोड़ कर पैसे की ही पुजा करनी चाहिए। क्योंकि आज के समय मे किसी से भी पुछो कि आज सबसे ज्यादा मुल्यवान वस्तु कौन सी है तो शायद ही किसी अलग चीज का नाम बताए।

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  12. कडवी सच्‍चाई। आज के दौर में इंसानों की कोई कीमत नहीं रह गई, रह गई है तो पैसे की कीमत। कम शब्‍दों में आपकी रचना ने सोचने पर मजबूर कर दिया मौजूदा हालात को। आपने जो लिखा वह महत लघुकथा नहीं है, सच्‍चाई है इस दुनिया की।

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  13. हाँ ....ऐसा ही होता है ..जब मानवता मर जाती है ..पैसा ही सबकुछ हो जाता है ...

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  14. भाई सुनील जी!
    बाजारूपन जहाँ पहुँच जाता है मानवता वहाँ कलंकित होती है। मर्मस्पर्शी लघुकथा। सहज,सटीक एवं प्रभावशाली लेखन के लिए बधाई! कृपया बसंत पर एक दोहा पढ़िए......
    ==============================
    शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
    गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
    सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी

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  15. संवेदनहीनता का बढ़िया उदहारण !

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  16. सुनील जी,
    लघु कथा के माद्यम से दुनियाँ की सच्ची तस्वीर पेश करने का आपका अंदाज़ अच्छा लगा

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  17. स्वार्थपरता और संवेदनहीनता ने मनुष्य को मनुष्यता से बहुत दूर कर दिया है ...
    अच्छी लघु कथा

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  18. Sunil ji..Ab kya kiya jaaye......? Swarth ...Swarth....Swarth. Bas har jagah Swarth.......Swarth..Swarth...Aur sirf Swarth.

    Chunki abhi bhi kuch Achhe log hain ...isilie umeed karni chaahiye ki ek din sab theek ho jayegaa.

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  19. अब बच्चा भी सीख जाएगा धीरे धीरे यही दुनियादारी :)

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  20. सुनील जी बहुत ही सटीक बात कम शब्दों में, आज ज्यादा पड़ने का समय कहा है, हायकू ही ठीक है बधाई

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  21. समाज का दोगलापन.हम भी तो इसी का हिस्सा हैं.

    पर सच तो लिखा है आपने.बधाई.

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  22. आजकल के परिवेश पर सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  23. बहुत ही सटीक लिया है आपने, आशा है की आप ब्लॉग पर समय समय पर पधारकर मार्गदर्शन देंगे.

    अरविन्द जांगिड,
    सीकर,
    राज.
    कनिष्ठ लिपिक

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  24. सुनील कुमार जी ,आपके ब्लोक पर पहली बार आई हु --माता -पिता की तस्वीर देखकर मेरा दिल बहुत खुश हुआ --जो इन्सान माँ -बाप की इतनी इज्जत करता हे --वो यकीनन शानदार हे --अपना फ़्लोअर(दोस्त ) बनाना चाहुगी --धन्यवाद !

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  25. भाई सुनील जी बसंत पर आपको हार्दिक शुभकामनायें |

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  26. आपको वसंत पंचमी की ढेरों शुभकामनाएं!
    सादर,
    डोरोथी.

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  27. आदरणीय सुनील जी
    आज के दौर में इंसानों की कोई कीमत नहीं रह गई
    संवेदनहीनता का बढ़िया उदहारण !

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