शनिवार, नवंबर 20, 2010
व्यंग्य :आवश्यकता है एक समीक्षक की
आवश्यकता है एक समीक्षक की जो मेरी बिना सिर पैर की, बेतुकी और कवित्व दोष से
भरपूर रचनाओं की समीक्षा कर उन्हें साहित्य जगत की अनुपम कृति बता सके |
पारिश्रमिक साहित्य जगत में बने स्थान की स्थिति पर निर्भर करेगा |
यह विज्ञापन देने का कारण यह है कि मेरे एक कवि मित्र के अनुसार अच्छा लेखक बनने
के लिए सर्वप्रथम अच्छा पाठक ,साहित्यिक ज्ञान , साहित्यिक रूचि और सृजन क्षमता
होना आवश्यक है |यदि आपके पास इनमें से कुछ भी नहीं है तो एक ख्याति प्राप्त समीक्षक
अवश्य होना चाहिए| क्योंकि रचनाओं का स्तर, पाठकों कि पसंद नापसंद पर निर्भर नहीं
रहता वह तो समीक्षक के द्वारा नियत किया जाता है
उदाहरण के रूप में एक कविता कि कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है |
नीले आकाश
की ओर देखकर
कुत्ते ने अपने
पंजों में दबी
हड्डी को
पुन : चूसना शुरू कर दिया |
अब इन पंक्तियों कि समीक्षा देखिये प्रस्तुत पंक्तियों में कवि सूखे के कारण पड़े अकाल कि
भयानक स्थिति का वर्णन करता है यहाँ नीला आकाश सूखे को दर्शाता है तथा हड्डी मानव अबषेशों को ऐसा प्रतीत होता है कि धरती मानव विहीन हो चकी है,
ओर बचा हुआ एकमात्र जीव अपने अस्तित्व को बचा कर रखने का प्रयास कर रहा है
कविता कि इन पंक्तियों से पाठक के मस्तिष्क में साकार चित्र खिंच जाता है
बहुत सुंदर भावाव्यक्ति
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
हंसी रुक नहीं रही सुनिल जी। आप मेरी कविता की समीक्षा उन्हीं समीक्षक महोदय से करवा दें।
जवाब देंहटाएंभूख तो नहीं थी
पेट भरा था
पर दूसरे को खाते देख
उसने ठोंगे में बचे मूढी को
पुनः खाना शुरु कर दिया!
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में .... सामा-चकेवा
विचार-शिक्षा
....सुंदर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंकविता की पक्तियों का ऐसा व्यंगात्मक मतलब भी निकाला जा सकता है कि....दुनिया की बढ्ती आबादी की भीड भाड से दूर...जहांसे थोडे से निले आकाश का टूकडा दिखाई दे रहा हो ऐसी जगह पर बैठकर....परांठे और मिठाइयों के भोजन से बोर हो कर.... वह कुत्ता कहीं से ब-मुश्किल से मिली हड्डी को पुनः चूस कर अपने मुंह का असली स्वाद बनाए रखने की कशमकश में है!
kya baat hai sunil ji....samiksha to sachmuch unique hai....
जवाब देंहटाएं:) :) ...समीक्षा बहुत बढ़िया लगी
जवाब देंहटाएंसुनील जी,
जवाब देंहटाएंकुछ लोग समीक्षक नही होते सिर्फ़ आलोचक होते हैं और आलोचना करना अपना धर्म समझते हैं फिर चाहे अर्थ का अनर्थ ही क्यूं ना करना पडे……………कहा कुछ गया हो और उसे समझ कर भी ना समझ बन जाते हैं और अपनी आलोचना की प्रवृति से बाज नही आते हैं और ऐसे लोग कुंठाग्रस्त होते हैं जो अपनी कुंठाओं को निकालने के लिये इस तरह के माध्यम अपनाते हैं……………समीक्षक पूर्वाग्रह से ग्रसित नही होते बल्कि निश्पक्ष समीक्षा करते हैं………धारदार व्यंग्य्।
... shaandaar post !!!
जवाब देंहटाएंमेरे मुताबिक आप सभी को हिंदी लिखना नहीं आता।
जवाब देंहटाएंकाफी अशुद्धियां हैं... क्या करें ऐसी भी समीक्षा करने का अभ्यास कर रहा हूं.... जय हो!
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा।
जवाब देंहटाएंऎसे समीक्षक मिल जाये तो अपने को महान बनने से कौन रोक सकता है . एक मक्बूल फ़िदा हुसैन की आडी तिरछी रेखाऒ को समीक्षको ने ही महान और मास्टर पीस बना दिया .
जवाब देंहटाएंमेरी कविताओं के ब्लॉग पर आपका आना , सूरज की तेज़ तपन में मानों एक ठंडी हवा के झोकें की तरह अनुभव किया मैंने....आपका दिल से आभार....
जवाब देंहटाएं6/10
जवाब देंहटाएंहा,,,हा,,,हा
जानदार,,,शानदार और टिकाऊ समीक्षा
आज पहली बार किसी प्रतिक्रिया को शामिल करके अंक दे रहा हूँ.
वंदना जी ने सटीक बात कह दी.
कविता तो सचमुच बहुत मार्मिक है!!
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंA wonderful presentation indeed !
.
बिलकुल बाबा नागार्जुन की कविता की तरह है यह कविता । ( स्मीक्षा कैसे है आप बताइये )
जवाब देंहटाएंवाह आपने तो बहुत बढ़िया समीक्षा कर डाली...अब किसी और की क्या जरुरत है.
जवाब देंहटाएंक्या तीर सही निशाने पे जा लगा है ....
जवाब देंहटाएंवाह वाह ....
सुनील जी ,
जवाब देंहटाएंसमीक्षा की कोई सीमा नहीं होती ! समीक्षा तो रचना की भाव भूमि को नए आयाम प्रदान करती है ! मगर समीक्षा निष्पक्ष और सन्दर्भ सार्थकता से जुडी होनी चाहिए !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सच में अच्छे समीक्षक की बहुत आवश्यकता है ... हमें तो पता ही नहीं थ इस बात का ...
जवाब देंहटाएंदिलचस्प लिखा है बहुत ...
हा हा सही है.
जवाब देंहटाएंSunil ji ...Ab main kya likhun..sabne itna kuch likh diya hai.
जवाब देंहटाएंApki ye sameeksha bahut pasand aayi
मैं कोई समीक्षक नहीं
जवाब देंहटाएंना कुछ ऐसा लिखती हूँ
पर दिल के करीब हूँ
जहाँ दिल में घुमड़ते जज़्बात मिलते हैं
साथ हो लेती हूँ
'वटवृक्ष' में आपकी रचनाएँ लेना चाहती हूँ
आप परिचय और तस्वीर भेजें
ब्लॉग का नाम
रचनाएँ मैं ले लूँगी
:))))))))) उम्दा समीक्षा
जवाब देंहटाएंहा हा हा हा.... बहुत अच्छे... क्या खूब लिखा है सर जी...
जवाब देंहटाएंवाह क्या समीक्षा है ,कुशल स्मीक्षक हैं आप। बधाई।
जवाब देंहटाएंचलिए कोई तो है जो समीक्षकों के पीछे पड़ा. पढ़के हंसी भी आयी.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा .....उम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और शानदार समीक्षा! बेहतरीन प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंसमीक्षक वही जो तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बना दे।
जवाब देंहटाएं...बहुत तीखा व्यंग्य लिखा है आपने...बधाई।
आकाश नीला हो या सुर्ख़ कुत्ते को क्या फ़र्क पड़ता है।
जवाब देंहटाएंसच कहूं तो एक परीक्छक की मानसीकता ज़ियादातर पास करने की रहती है , वहीं एक समीक्छक की मानसीकता अपने अह्म से बेज़ार रहती है। एक अच्छे साहित्य की जो आलोचक जितनी तीख़ी आलोचना करे उसे हम उतना ही बड़ा आलोचक मानते हैं , मतलब आग दोनों ओर बराबर की लगी है। एक आग दूसरे आग को कैसे बुझा सकती है।
हा हा हा....
जवाब देंहटाएंमेरी तो हंसी ही नहीं रुक रही है...
क्या से क्या हो गया......
vyangy me bhi shkti hoti hai, urja hoti hai, sampreshniytaa ho ti hai. dekhiye n is vyagy ne kitno ko hasaya, kitno ko bahut kuchh padhayaa aur ..vyangy ko jo ek naii dishaa di wah alag. waise mera bhaaii ! yah vyang tha kis pr?
जवाब देंहटाएं