बढती हुई महँगाई की चिंता
अब हमें भी होने लगी है |
क्योंकि हमारी फटी मैली क़मीज में ,
लगे बदरंग बटनों का स्थान ,
आलपिन लेने लगी है |
यह महँगाई यूँ ही बढती जाएगी
और एक दिन आसमान को छू जाएगी |
तब ज़मीन और आसमान के बीच का फ़ासला ,
कुछ भी नहीं रह जायेगा |
आदमी ज़िंदगी के बोझ से मर जायेगा |
(यह रचना पुनः सम्पादित एवम प्रकाशित है)
बहुत खूब... बहुत सही बात लिख दी आपने.
जवाब देंहटाएंउफ्, यह मँहगाई।
जवाब देंहटाएंekdam theek baat.
जवाब देंहटाएंमंहगाई पर जायज़ चिन्ता
जवाब देंहटाएंहालात का सही आंकलन. बहुत ही गहरी बात.
जवाब देंहटाएंaam insan ki subse badnam samsya.
जवाब देंहटाएंसुनील जी ...सहमत हूँ . आपने आम आदमी के दिल की बात कही है. आभार.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंक्योंकि हमारी फटी मैली क़मीज में
जवाब देंहटाएंलगे बदरंग बटनों का स्थान
आलपिन लेने लगी है ।
उपरोक्त पंक्तियां लाजवाब है...बिल्कुल नया अंदाज़ है..
बधाई , सुनील जी।
क्योंकि हमारी फटी मैली क़मीज में ,
जवाब देंहटाएंलगे बदरंग बटनों का स्थान ,
आलपिन लेने लगी है ...
वाह...वा ...वाह....क्या बात है ......!!
महंगाई की ऐसी तुलना पहले किसी ने नहीं की होगी ....
बहुत सुंदर .....!!
क्योंकि हमारी फटी मैली क़मीज में ,
जवाब देंहटाएंलगे बदरंग बटनों का स्थान ,
आलपिन लेने लगी है |
महंगाई की ऐसी तुलना .... कमाल... बेहद सुंदर
mahgayi par sasakt rachana
जवाब देंहटाएंwww.deepti09sharma.blogspot.com
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबधाई
वस्तुएं मंहगी, इंसान सस्ते में बिक रहे हैं
कुछ लोग नोट न गिनके-अपने बैंक गिन रहे हैं
4.5/10
जवाब देंहटाएंआपने कुछ नया कहने की कोशिश की है..बधाई.
यूँ भी आज का इंसान वेताल बना घूम रहा है...अपना ही शव काँधे पे लादे.
हमारी फटी मैली क़मीज में ,
जवाब देंहटाएंलगे बदरंग बटनों का स्थान ,
आलपिन लेने लगी है |
राजनेताओं के लिए महंगाई का नारा चुनाव जीतने का सोपान है पर सुरसा के मुख की भांति बढती महंगाई आम जनता की कमर तोड़ रही है . सटीक लेखन के लिए शुभकामना
जवाब देंहटाएं... behatreen rachanaa !!!
जवाब देंहटाएंअच्छी कोशिश। सुनील भाई अगर शब्दों के चयन और उनकी जगह पर थोड़ा सा और ध्यान दें तो आपकी कहन में पैनापन आ जाएगा।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही बात है
जवाब देंहटाएंआभार।
महगाई के दर्द को अच्छी तरह से अभिव्यक्त किया है आपने।
जवाब देंहटाएंस्व0 चकाचक बनारसी की ये पंक्तियाँ याद आ गईं..
इहाँ अदमिन के दू जून रोटी हौ भारी
उफ्फर परे ई दशमी दीवारी...
अर्थात..
एक गरीब आदमी झल्ला कर कह रहा है..
यहाँ आदमी को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं
भाड़ में जाय तुम्हारे त्यौहार
दशमी या फिर दीपावली।
क्योंकि हमारी फटी मैली क़मीज में ,
जवाब देंहटाएंलगे बदरंग बटनों का स्थान ,
आलपिन लेने लगी है |
Sundar Abhivyakti. Badhai........
काश की महँगाई की तरह ही इंसानियत भी बढ जाती
जवाब देंहटाएंधरती आसमां की तरह हमारे दिलों की दूरियां भी घट जाती