बुधवार, अक्तूबर 27, 2010

यथार्थ


झाँक कर देखा खिड़की से
उमड़ते हुए बादलों को
दौड़ कर आँगन में आया | 
और आकाश में बादलों का एक झुंड पाया | 
और शुरू हो गया तलाश का
एक अंतहीन सिलसिला
अचानक खिल उठा चेहरा |
और प्रसन्न हुआ अंतर्मन
क्योंकि मिल गयी थी मुझे ,
मुन्नी की गुड़िया और पत्नी का कंगन
फिर अचानक कुछ सोंच कर डर गया
यथार्थ के धरातल पर गिर गया |
दौड़ कर अन्दर आया
बंद कर ली खिड़की और दरवाजे
कहीं भिगो न दे यह
मेरे तन का एकमात्र कपड़ा |

 (एक पुरानी रचना पुनः  प्रकाशित)  


15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही गहन चिंतन वाली पोस्ट...
    गद्य को पूर्णता देती कविता भी सोचने को विवश करती है.

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  2. गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।

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  3. बंद कर ली खिड़की और दरवाजे
    कहीं भिगो न दे यह
    मेरे तन का एकमात्र कपड़ा |
    बहुत खूबसूरत एहसास हैं ...

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  4. 6/10

    सुन्दर अर्थपूर्ण प्रस्तुति
    अनकही सी रचना जो बहुत कुछ कह गयी.

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  5. सुनील जी ...आपकी ये रचना बहुत उम्दा है .
    उस्ताद जी भी ऐसा ही मानते है....
    सुनील जी बधाई हो ....... .......

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  6. बंद कर ली खिड़की और दरवाजे
    कहीं भिगो न दे यह
    मेरे तन का एकमात्र कपड़ा |
    गहरी यादों को शब्दों के बहाव ने ेअच्छी रवानगी दी है। शुभकामनायें।

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  7. झाँक कर देखा खिड़की से
    उमड़ते हुए बादलों को
    दौड़ कर आँगन में आया |
    और आकाश में बादलों का एक झुंड पाया
    सुंदर भाव लिए अच्छी कविता।

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  8. .

    प्रभावशाली अभिव्यक्ति !

    .

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  9. ankahe ehsaason ko sunna padhna achha laga.... vatvriksh ke liye apni rachna bhejen parichay aur tasweer ke saath rasprabha@gmail.com per

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