शोहरत की धूल
जैसे जैसे हमारी पहचान
समाज में बढने लगती है |
वैसे वैसे हमारी रिश्तों की,
चादर सिमटने लगती है |
प्रेम और आत्मीयता के फूलों के रंग ,
अब धुंधले पड़ने लगे है |
क्योंकि उसमें गरीबी और बदहाली के,
निशान उभरने लगे है |
आज हमें अपनों की शक्लें की
अनजानी लगने लगी है |
क्योंकि आँखों पे चढ़े चश्में पर
शोहरत की धूल जमने लगी है |
2/10
जवाब देंहटाएंसाधारण
इस शोहरत की धूल मे सब एक दिन दब जायेंगे । यह अन्धा कर देती है ।
जवाब देंहटाएंbilkul sahi kaha
जवाब देंहटाएंएक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल।
जवाब देंहटाएंy hi sach hai log sohrat pakar sab kuch bhul jate hai
जवाब देंहटाएंachhi rachna
जिन्दगी में हर वक्त संतुलन जरूरी है...सत्य-न्याय-ईमानदारी की राह को छोड़कर क्योकि इस राह पर चलने वालों का संतुलन किसी न किसी वजह से गड्बरा ही जाता है ....तभी लोग आज इस राह से दूर भागतें हैं ..राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे शक्तिशाली पदों पर बैठकर भी ...
जवाब देंहटाएं... behatareen rachanaa !
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने!
जवाब देंहटाएंआज वाकई में रिश्तों की चादर छोटी हो गई है!
--
विजयादशमी की शुभकामनाएँ!
सुंदर प्रस्तुति...दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंप्रेम और आत्मीयता के फूलों ,
जवाब देंहटाएंअब धुंधले पढने लगे है |
फूलों नहीं फूल .....
पढने नहीं पड़ने ....
टंकण की गलतियां सुनील जी ....
इससे रचना की उत्कृष्टता कम होती है ....
हरकीरत जी आपका सुझाव बिलकुल सही था अब मैंने गलती सुधार ली है
जवाब देंहटाएंयथार्थ तो यही है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंबेटी .......प्यारी सी धुन
अच्छा है जीवन को बस चंद शब्दों में जान लेना
जवाब देंहटाएंBitter truth !
जवाब देंहटाएंआपके दिल की य बातें बिल्कुल सही हैं।
जवाब देंहटाएंसुनील भाई, एकदम जीवंत चित्र सी लगी आपकी कविता।
जवाब देंहटाएं................
..आप कितने बड़े सनकी ब्लॉगर हैं?