शुक्रवार, अक्तूबर 15, 2010

शोहरत की धूल


जैसे जैसे हमारी पहचान 
 समाज में बढने लगती है |
वैसे वैसे हमारी रिश्तों की,
चादर सिमटने लगती है |
प्रेम और आत्मीयता के फूलों के रंग  ,
अब धुंधले पड़ने लगे है |
क्योंकि उसमें गरीबी और बदहाली के, 
निशान उभरने लगे है |
आज हमें अपनों की शक्लें की
अनजानी लगने लगी है |
क्योंकि आँखों पे चढ़े चश्में पर 
शोहरत की धूल जमने लगी है |

16 टिप्‍पणियां:

  1. इस शोहरत की धूल मे सब एक दिन दब जायेंगे । यह अन्धा कर देती है ।

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  2. जिन्दगी में हर वक्त संतुलन जरूरी है...सत्य-न्याय-ईमानदारी की राह को छोड़कर क्योकि इस राह पर चलने वालों का संतुलन किसी न किसी वजह से गड्बरा ही जाता है ....तभी लोग आज इस राह से दूर भागतें हैं ..राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे शक्तिशाली पदों पर बैठकर भी ...

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  3. सही कहा है आपने!
    आज वाकई में रिश्तों की चादर छोटी हो गई है!
    --
    विजयादशमी की शुभकामनाएँ!

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  4. सुंदर प्रस्तुति...दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं।

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  5. प्रेम और आत्मीयता के फूलों ,
    अब धुंधले पढने लगे है |
    फूलों नहीं फूल .....
    पढने नहीं पड़ने ....
    टंकण की गलतियां सुनील जी ....
    इससे रचना की उत्कृष्टता कम होती है ....

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  6. हरकीरत जी आपका सुझाव बिलकुल सही था अब मैंने गलती सुधार ली है

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  7. यथार्थ तो यही है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    बेटी .......प्यारी सी धुन

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  8. अच्छा है जीवन को बस चंद शब्दों में जान लेना

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  9. आपके दिल की य बातें बिल्कुल सही हैं।

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  10. सुनील भाई, एकदम जीवंत चित्र सी लगी आपकी कविता।
    ................
    ..आप कितने बड़े सनकी ब्लॉगर हैं?

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