मंगलवार, मई 25, 2010

पाठकों को तरसती एक प्रतीकात्मक कविता

मिटटी का प्रश्न

गुँथी हुई मिटटी का प्रश्न
घूमते हुए चाक से
मुझे क्या बनना है |
शीतल जल की गगरी
या गर्म पेय का पात्र,
मिटटी के प्रश्न पर
चाक का भौचक्का रह जाना |
चलते चलते रुक जाना
गहरी सोंच में डूब जाना |
क्षण  भंगुर जीवन
और इतना गंभीर चिंतन
अचानक चाक का
मिटटी की मानव से तुलना करना
 फिर खिलखिलाकर हँसना
और एक बार फिर वह
शुरू कर देता है घूमना |



19 टिप्‍पणियां:

  1. वाह।
    पहली बार ही इस ब्लॉग पर आया
    और इतनी सुन्दर रचना पढ़ने को मिली!

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  2. मिट्टी और चाक से तो मरा जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध है!
    प्रजापति बिरादरी में ही जन्म लिया है मैंने!
    --
    वर्ड-वेरीफिकेशन हटा दीजिए! टिप्पणी करने में
    बहुत समय नष्ट होता है!

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  3. उम्दा रचना, जो सवाल मिटटी ने पूछा इंसान तो यह भी नहीं पूछ पाता, मजबूरन अथवा स्वार्थबश

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  4. दिल और दिमाग की गहराइयों से निकली कविता / सुन्दर ,अति सुन्दर /

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  5. बहुत अच्छी रचना!

    चाक का फिर से घूमना प्रभावित कर गया जी....

    कुंवर जी,

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  6. 6.5/10

    उत्कृष्ट मौलिक कविता
    छोटी सी कविता गहरी बात कह जाती है
    और जीवन-दर्शन समझा जाती है

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  7. पहली बार हूं आपके ब्लॉग पर....
    बेहतरीन रचना....

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  8. मिट्टी और मानव की तुलना ..गहन विचार

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  9. खूबसूरत और सटीक बिम्ब .बहुत अच्छी लगी कविता.

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  10. गहन अभिव्यक्ति....
    बहुत सुन्दरता से आने विचार दिए हैं ...
    उत्कृष्ट रचना ....बधाई..

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  11. मिट्टी तो बेबस है कुम्हार जो उसे बनाएगा बन जायेगी पर मानव तो अपना भाग्य खुद गढ़ सकता है जो होना चाहे हो सकता है... बनाने वाले को अपने पीछे चलने पर विवश कर सकता है... कबीर कहते हैं न हरी मेरे पीछे फिरत कहत् कबीर कबीर...

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  12. अरे वाह। इतना गम्भीर चिंतन गज़ब की प्रस्तुति है सुनील जी। बहुत अच्छा लगा पढ़कर। इसे मैने सेव कर लिया है। क्षणभंगुर है जीवन फ़िर भी फ़िक्र।

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  13. बहुत ही गंभीर चिंतन कराती कविता।

    सादर

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  14. बेहद गहरे अर्थों को समेटती खूबसूरत और संवेदनशील रचना. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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