मैं सोच रहा हूँ ... जिनको प्रेरित किया जा रहा है। जिनके लिए आह्वान है - चलो, उठो, उठाओ और खोदो जैसे एक के बाद एक आदेशात्मक शब्द ... क्या वे जन सोये हुए हैं या वे भी ज़िंदा लाश हैं? या इन शब्दों को सभी लाशों के बीच ये समझ कर बोला जा रहा है कि यदि उनमें जो कुछ अधिक ज़िंदा होंगी वो उठ खड़ी होंगी, जो केवल ज़िंदा होंगी वे दफना दी जायेंगी?
चलो उठो उठाओं फावड़े खोदो कब्र कुछ जिन्दा लाशों को दफनाना हैं धरती का बोझ कुछ कम करना हैं वाऽह ! क्या बात है ! बहुत खूब ! सुनील कुमार जी सच , हमारी छाती पर मूंग दल रहे इन धरती के बोझों को दफ़नाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है … पानी सिर से ऊपर जाने पर सच्चे क़लमकार का आक्रोश जागना स्वाभाविक है … परिवर्तन आने तक चलती रहे लेखनी अनवरत… शुभकामनाओं सहित…
आज हर तरफ बस जिन्दा लाशों का ही बोलबाला हैं ........खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंbehad samayik......
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समायिक प्रस्तुति,,सुनील जी,,
जवाब देंहटाएंrecent post: बात न करो,
खुबसूरत अभिवयक्ति......
जवाब देंहटाएंगर दबाना चाहा हर ज़िंदा लाश को तो ज़मीन कम पड़ जाएगी ....
जवाब देंहटाएंमैं सोच रहा हूँ ... जिनको प्रेरित किया जा रहा है। जिनके लिए आह्वान है - चलो, उठो, उठाओ और खोदो जैसे एक के बाद एक आदेशात्मक शब्द ... क्या वे जन सोये हुए हैं या वे भी ज़िंदा लाश हैं? या इन शब्दों को सभी लाशों के बीच ये समझ कर बोला जा रहा है कि यदि उनमें जो कुछ अधिक ज़िंदा होंगी वो उठ खड़ी होंगी, जो केवल ज़िंदा होंगी वे दफना दी जायेंगी?
जवाब देंहटाएंएक लघु नक़ल कविता :
जवाब देंहटाएंआओ
... इधर आओ !
खोदो
... गड्ढा खोदो !
जाओ
... हो जाओ !
खड़े - उसके किनारे।
देना है
... मुझे देना है।
धक्का - तुमको ही
देखो
... देखो - दिन में तारे।
गम्भीर विचार लिए हुई एक उम्दा कविता ...
जवाब देंहटाएंमेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/12/blog-post.html
गहन विचार
जवाब देंहटाएंबढ़िया आह्वान ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-12-2012) के चर्चा मंच-१०८८ (आइए कुछ बातें करें!) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
काम बहुत है, सच में भैया।
जवाब देंहटाएंबहुत बढियां..
जवाब देंहटाएंइसकी जरुरत भी तो है..
बेहतरीन समायिक प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंक्रांतिकारी विचार.
जवाब देंहटाएंबधाई.
आक्रोश ... कलम के द्वारा ...
जवाब देंहटाएंऐसे धरती के बोझ से धरती को हलका करने में ही भलाई है।
जवाब देंहटाएंचलो उठो
उठाओं फावड़े
खोदो कब्र
कुछ जिन्दा लाशों को
दफनाना हैं
धरती का बोझ
कुछ कम करना हैं
वाऽह ! क्या बात है !
बहुत खूब !
सुनील कुमार जी
सच , हमारी छाती पर मूंग दल रहे इन धरती के बोझों को दफ़नाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है …
पानी सिर से ऊपर जाने पर सच्चे क़लमकार का आक्रोश जागना स्वाभाविक है …
परिवर्तन आने तक चलती रहे लेखनी अनवरत…
शुभकामनाओं सहित…
http://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_9575.html
जवाब देंहटाएंVERY TOUCHING.
जवाब देंहटाएंसच्चा आक्रोश ..
जवाब देंहटाएंबहुत पीड़ा छुपी है इन शब्दों में..
जवाब देंहटाएंshyad gribon ko jinda lashe mante hai amir log..
जवाब देंहटाएंkya baat hai, sunil bhai! waqai aap chhupe rustam hain. aap the kahan abhi tak? aur,kahan vilupt hain aajkal?
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